अक्सर रोने की बातें बस स्त्री के हित में कही गई, लिखी गई और व्याख्या की गई। पर सच तो ये है कि मरद भी रोता है, हालात न हों काबू में जब, बनाकर न बनने लगे तब, ढूंढ एक संजीदा एकांत किनारा मरद भी रोता है, हाँ मरद भी रोता है। जब पिता गैर नियत निकले, माता भाव हीन निकले पुत्र नालायक निकले, पुत्री निर्लज्ज निकले, पत्नी कुलटा निकले, भाई कसाई निकले, बहन सूर्पनखा बन जाये, समाज दानवी हो जाये, अपने नोंच खाने लगे, तब एक मरद रोता है मरद के आँसू नहीं दिखते अक्सर पर जब रोता है तो बाढ़ आ जाती है, कई बस्तियां समा जाती है उसमें।
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