बात उन दिनों की है।
साल बीत रहा है खैर खबर की बात है। बात उन दिनों की है, न तुझमें थी अल्हड़ता न मुझमें अल्हड़ता थी तब, तुम थे सभ्य, संयमी, शिष्ट पर मैं था जरा भीरू जब, क्यों नहीं बढ़ सके आगे सोचता हूँ, मैं खुली किताब सा सिर्फ पढ़ाने को था, तुम नवेली कलम सी भरी बस उतारू सारे शब्द उतारने को, मैं जरा गौर से झाँकता हूँ अब तो पाता हूँ कि नवेली कलम नवेली नहीं थी एक डायरी समेटे कई राज दफन करती रहती थी वो, शायद खुल सकती थी उसकी लेखनी पर मैं ही मूरख था कभी उसे पढ़ने की कोशिश ही नहीं की। चलो याद करता हूँ तुम्हें कई दफा सोचते हुए बता दूँ अकेले में, जान लो। खुश हूँ, तुम खुश हो, जानकर..? तुम्हें एक हसीं सफर का ख्वाब मानकर।