पशोपेश

अजीब सी पशोपेश है ज़िन्दगी
सच नज़र नहीं आता झूठ समझ नहीं आता

मैं तेरे साथ तो हूँ पर
तू दिल में ही आता है जुबाँ पे नहीं आता
तेरे जैसा सितमगार नहीं कि यूँही याद आके मुड़ जाऊँ
मैं तो बहम हूँ तेरा सांसों में तो आता हूँ लबों पे नहीं आता

मेरे मंज़िल की सीढ़ी भी यहीं थी कहीं पर
आज रास्ते हज़ारों बन गए रास्ता नज़र नहीं आता
सारी रात इसी पशोपेश में गुजर गई अपनी तो
वो शख्स यादों में तो आता है पर सामने नहीं आता

ये वाकया क्या कहूँ  दुनिया वालों
चल तो रहा हूँ मीलों के फासले पर
चेहरा तेरा पीछे नहीं छूटता,
एक अजीब सी रुमानियत थी उस शख्स के आँखों में
आँखे बंद होती है पर वो नज़ारा नहीं हटता।

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