रोशनी रास नहीं आ रही सहर की अब, ख्वाब तो रंगीन ही हैं रोज की तरह, आबो हवा बदल गई है शहर की अब। कुछ पहचानी सी चल रही है हवा सब पहर की अब, मुखातिब होगा जाने वो शख्स किस दोपहर अब....
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मेरी वर्णमाला
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अ से अनार आ से आम वर्णमाला के इस रूप रंग से परिचित लोगों के लिए मेरी ओर से एक नई वर्णमाला, जो पग-पग पर बदलती रहती है, समय-समय पर बदलती रहती है इसके विविध रंगों और रूपों को पिरोना और फिर उसे वर्णमाला के रूप में बुनकर साज-सज्जा देकर रंगना शायद बेहतर विकल्प हो सकता था फिर भी इसे रंगना एक बेहतर विकल्प है। अ से अखबार कहूँ, नित का आ से कहूं आतंक, हित का इ से कहूँ इबारत कहूँ, ई से कहूं ईशान, राष्ट्र का उ से कहूँ उत्तर, भ्रष्ट का ऊ से मैं ऊखल रहन दूँ, ऋ से ऋग्वेद लिख डालूं। ए से बस मैं एक हो जाऊं, ऐ से ऐरा-गैरा बन जाऊं, ओ से ओढ़ लूँ हया को, औ से औरत बनने दूँ। अंक से अंकगणित बन जाऊं, अ: को मैं पुनः बनाऊं। इन स्वरों को पुनः रचाऊं। क से कला बनूँ कलाकार की, ख से खड़ाऊँ बन जाऊं, ग से गगन बनूँ असीमित, घ से घर को घर रहने दूँ। ङ को भी न छोड़ूँ खाली, बनाऊं इसे भी सवाली। च से चल पडूँ सफर में, छ से छप जाऊं जगत में, ज से जहान को कर दूं एक। झ से झरना बन जाऊं ञ को बहाकर आगे ले जाऊं