क्या

ओ समाज-समाज रोने वालों कभी समाज को देखा है क्या

आधी थालियां फेंकने वालों भूखे की आँखे देखि है क्या

बड़ी-बड़ी फेंकने वालों कभी किसी गरीब का हाथ थामा है क्या

पैसे की भूख में मरने वालों परिवार को भी समझा है क्या

हालात पर बहस करने वालों इसके जिम्मेदारों को देखा है क्या

मदमस्त चल में चलने वालों कितनी चींटियाँ मरी सोचा है क्या

आने के भाव बिकने वालों जान की कीमत लगा सकते हो क्या

स्वहित में समाने वालों किसके साथ ही जाना है क्या

आँखे मीचे चलने वालों आगे क्या है देखा है क्या

हर बात पे मुँह चलने वालों अपनी गलती मानोगे क्या

Comments

Popular posts from this blog

पहाड़ का रोना