माँ
क्या लिखूँ कि क्या लिख दूँगा,
तू कलम में समाती नहीं कभी।
कभी सोचूँ भुला के आगे जाऊँ कहीं दूर
चोट लगते ही फिर आ जाती है,
तू माँ है ना, जाती नहीं कभी।
तेरे नाम का दीया तो जलाता नहीं अब,
पर एक दीये को रोशन कर तेरा नाम ले लेता हूँ।
बदनसीब बेटा तेरा....
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