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तुझे संजीदा कहूँ कि बेहूदा,
रखा तूने अज़ब शौक से है मुझे,
कुछ मैले, उखले से बचपन के रंगों में नहाये...
थे भी नहीं भी थे! पर जो भी थे सुहाते थे,
वो चिथड़े जिन्हें पहनने का गुमान बस साल में एक बार किया करते थे।
कभार ही देखने मिलते है ये सपने अपने बचपन के किन्ही पगडंडियों में, सपने क्या थे उम्मीदी थी।
उम्मीदी इतनी कि बस जल्दी 15 अगस्त* आ जाये..।
सपने इतने कि जमाना हार जाए।
तूने मज़बूरी में सिखाया या मज़दूरी करने में पता नहीं..
ये लम्बी सी दूरियाँ तय करने का हुनर तेरे से भागते ही मिला है।
तू सुनहरा तो बहुत था, तूने पाने की इच्छा भी रही है, पन्ने जब यूँ पलट जाएं तो तुझ तक आने को नहीं चाहता।
तेरी मेड़ें कब सीमाएं लगने लगी पता नहीं...
पर इन मेड़ो को तोड़ कर जाने को सरल कहूँ कि पेचीदा,
सिखाया बड़ी सिद्दत से मुझे।
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*(बचपन में नए कपड़े सिर्फ 15 अगस्त को ही नसीब थे स्कूल ड्रेस के तौर पर वही कपड़े जिन्हें पहनकर मेहमानी में भी जाते थे और स्कूल भी पर नए थे तो इतराना बनता था।)
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