कैद....।

उसने इस कदर दबा रखा है सीने में उसे,
जंजीरें दर्द से कराह रही है।

ये महोब्बत थी कि सुराख-ए-कैदखाना,
जितने अंदर समाये,
सहारा सा मिल रहा है बेवहा अंधेरे का।

वो इस फन में माहिर निकला ए दोस्त,
वरना तो फन कुचले कितने, कितने ही फैलाने को दिए,
वो खूब कहा करता है सुनो सफर बहुत सुहाना है मौसम की तरह,
हमें जरा भी भान न था, वो बदलेगा भी मौसम की तरह।

वो संजीदा बहुत लगा मुझे और अपना भी,
गुफ्तगूं भी हुई चर्चा-ए-महोब्बत भी बहुत,
ए नाज़नीं महोब्बत नाम देकर इसे हया का सौदा न कर,

उसके सीने से निकल गया तो ढूंढ ही लेगा आसरा दिल मेरा भी,
ये गहरी खाइयाँ सुहानी नहीं लगती अब जरा भी,

उसने इस कदर दबा रखा है सीने में उसे,
जंजीरें दर्द से कराह रही है।

उसे दोष सिर्फ इतना कि मेरे सब अपने छोड़ गए दोस्त रूठ गए उसकी खातिर,
उसके टूटने से मैं टूट जाता तो कोई और बात थी,
वो टूटा ही मेरे जुड़ने की खातिर।

दर्द तो नहीं एक एहसास है वो अजब मीठे सपनों सा है,
अब भी उसे याद होगा, वो लड़ पड़ता था मेरी खातिर।

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