"बचपन का शौक"

        कई दफ़ा सोचा कि मैं भी इस गोल-गोल से घूमने वाले चरखे में बैठूँ.......वो वक़्त जो था वो बचपन था ,
ज़िस्म के बाजू में छुपा छुटमुट सा बचपना भी कहीं समेट रखा था,,,
       मेलों में जाकर बस देखकर ही तसल्ली कर लेनी होती थी,क्योंकि जेब ज़रा कोरी सी हुआ करती थी,
करारी होती तो चरखे में घूमना इतनी बड़ी बात भी नहीं लगती,

चरखे में बैठना भी एक स्वप्न जैसा था,.......सोचा था जब हैसियत की सीढ़ी चढूँगा तो ज़रूर बैठूँगा,
  कितना मज़ा आता होगा ना इस पर बैठ कर ,,,वो बच्चे जो इस पर बैठ कर चिल्ला रहे होते हैं और शीर्ष पर जाकर ऐसा लग रहा होगा उनको मानो इस जहाँ पर सिर्फ उनका ही राज है,,            
वो देखो ना एक के बाद एक इस राजा के तख़्त पर विराजमान हो रहे हैं,,,,जैसे कि ये चरखा बतला रहा हो कि वक़्त सभी का आता है,,, बस ज़रूरत है मुझे गिराने की................
मुझे गिराओगे तो ही तुम उस तख़्त पर जा बैठ सकोगे,और
फ़िर ये गिरने उठने का ही सफ़रनामा तो है ,,,,,,             
शायद बचपन में ये सब समझ नहीं आता था बस एक ख़्वाहिश भर थी चरखे की सवारी ,,
पर आज सत्ताईस की उम्र में जब पहली बार राजधानी के टीले पर लगे इस चरखे पर बैठा तो बचपन के सपने का रौब आंखों में था और
चरखे सी ज़िन्दगी की गणित उँगलियों में थी..............
  
            बचपन बड़े अभावों में बीता ,,,
तनभर कपड़ा और पेटभर खाना ही जरूरत भी थी और शौक भी,,,,,
   अगर बचपन में चरखा घूम लिया होता तो शायद आज चरखे के घूमने का सही अर्थ मालूम नहीं पड़ता पर आज हैसियत की सीढ़ी चढ़कर जो मैं पहली बार इस पर बैठा तो बचपन की रौनक भी आंखों में चमक रही थी और इस जवानी का रौब भी सीने से झलक रहा था,,,,
भई रौब हो भी क्यों ना ... बचपन का सपना जो पूरा कर रहा हूँ,,वो भी अपनी कमाई से,,,,,,
बचपन में मेले के लिए मिला जेबखर्च तो गरम-गरम जलेबियों में ही ख़त्म हो जाता था,,,
पर आज इत्मिनान से खर्च करने की ख़्वाहिश पनप रही है,,,
कोरी जेब से करारी जेब तक का सफर बिल्कुल चरखे जैसा था फर्श से सीधे तख़्त की जागीरदारी,,..................

   (17 फरवरी 2019 बचपन का शौक पूरा किया "चरखे में बैठने का")

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