शरद...
नसीहतें...! नहीं ! शिकायतों का अंबार लगा गया,
मैं बदल रहा हूँ,
जरा सा भावुक वो,
ले गया, जहाँ अक्सर मैं भटकाव के बाद जाया करता हूँ,
कहता है याद है तुझे.?
रात पेशानी में बड़ा जोर रहा मेरे..
क्या भूल गया मैं.?
संवरते-संवरते कहीं बिखरने लगा हूँ शायद.!
या फिर बिखरा सा था कभी सँवरा ही नहीं,
जो भी हो...
मेरे लड़खड़ाने की आवाज़ तुझ तक पहुंच तो रही है न,
फिर भी अडिग, शून्य, सिफर सा चल तो रहा हूँ न
कहता है मानता नहीं तू किसी को,
अब खुदा बनाया है तो भूल ही जाऊंगा न...
कोई है..? जो ये बता आये उसे
एक कहानी जो बुरे दौर से शुरू हुई हो वो डिगती नहीं।
एक सफर जो उगने को शुरू हो डूबता नहीं।
वो अधखिला चांद और मैं उसकी रोशनी से नहाया हुआ
चांद न रोशनी भुलाता है न अपना मैल मैं।
कोई राम नहीं, न भरत कहीं से,
जून का महीना और उबाल सूरज का,
सुकून की कल आई शरद कहीं से।
हवा में तैरने दे कुछ और क्षण इस पतंग को,
लुटेरों के शहर में हूँ पकड़ लेंगे गरद कहीं से।
बहुत सुंदर सर 💐💐💐👌👌👌👌
ReplyDeleteवक़्त अपना असर उम्र पर छोड़ता जा रहा हैं....! बहुत ही उम्दा भग्गू दा 🌻
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