शब्द

रच लेते हैं कुछ शब्द ही एक कहानी को, कभी शब्दों की अपनी कहानी नहीं होती।
कतरा-कतरा बयां कर देते हैं हर दर्द को, कभी शब्दों की अपनी जुबानी नहीं होती।।

भेद लेते हैं हाड़-माँस के आदमी को, कभी शब्दों को अपनी कटार चलानी नहीं होती।।
जरूरतानुसार बेच लेते हैं खुद को, कभी शब्दों को अपनी दुकान सजानी नहीं होती। 

जीत लेते हैं पिछड़ के भी दिलों को, कभी शब्दों की अपनी अगवानी नहीं होती।
खुद ही बना लेते हैं हरफ़ ये खरीददार को, कभी शब्दों की अपनी जजमानी नहीं होती।।

पलट लेते हैं हर धारा की दिशा को, कभी शब्दों की अपनी नौजवानी नहीं होती।
स्वयं घेर लाते है मेहमानों को, कभी शब्दों की अपनी मेजबानी नहीं होती।।



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