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कलम सवाली

राहत पूछते नहीं जुबां से हमारे साहब, कलम जब देखो हमेशा सवाली होती है। दौर बहुत लम्बा नहीं था बस यूँ लगता है! एक लम्बी सी किताब थी जिंदगी, पहले से उसने पूरी पढ़ डाली होती है। हर जगह गर्त ही गर्त, पहाड़ ही पहाड़ दिखते है मुझे, न कोई दिल मिलता है इधर, न कोई जगह खाली होती है। कलम उसकी अब भी हमेशा सवाली होती है।

😊

तुम हर नाम मे हो जो भी नाम लूं अपना समझ लेना, तुम हर ख्वाब में हो, जभी सपना कहूँ तुम अपना समझ लेना।

तुम.

सर्द हवा हो जाना जनवरी हो तुम, धीमी सी सही मगर सुरूर में जो आये माह-ए-मुहब्बत फरवरी हो तुम। मार्च का बसन्त हो, अप्रैल की फसल हो, हासिल सारा सूद है, जीवन का तुम असल हो। मई-जून की लू जैसी तुम, कभी नयनों का सावन-भादो हो, जीवन मेरा सूखी भूमि, तुम जुलाई-अगस्त सी कादो हो। सितंबर जैसी बरसाती अंत सा, अक्टूबर-नबम्बर सी पसरी शांति तुम। पके खेत सा शांत खड़ा मैं, उसका तुम रक्षण बाड़ा हो, जीवन के अंत का जाना, दिसंबर जैसा तुम जाड़ा हो।
जो सरे राह पूज लिए जाते हैं उनके मन्दिर-मस्जिद नहीं होते, पीर तो मोमिनों में होते है ख़्वाब, काफिरों के मुर्शिद नहीं होते...

कौल-ए-कलम

  कौल-ए-कलम कल्ब से उतरता नहीं, वाकया शब्दों के मिलन का बिसर गये हैं।

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कभी याद भर कर लूँ तो बस रोना होता है, सही है, होता वही है जो बस होना होता है। सोचता हूँ पीतल का रंग भी कुछ ऐसा ही था, धारणा ही गलत थी कि सुनहरा बस सोना होता है। पाने को जहाँ में सब तो है मगर,  किसने कहा था क्या कुछ खोना होता है. तकदीरे-उत्फ़ में यकीनी तो नहीं हुई मगर, अब लगता है होता वही है जो बस होना होता है।

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