कलम में स्याही नहीं लहू भर गया है, आते-जाते सरे राह टोकता नहीं कोई यूँ लगता है मेरे अंदर का वो मर गया है। कुछ रौनक सी कुछ चहल-पहल सी लौटी है, लगता है, जाते-जाते वीराने को आबाद कर गया है। शुष्क है बाहर का मौसम पर भीग गया हूँ, यूँ लगता है भीतर कोई बरस कर गया है।
दिन बीते, महीने बीते और फिर साल बीते, मैं सोचता हूँ! कि क्या जोड़े रखा हमें इतने समय जबकि मैं साधारण सा बस डरपोक सा और वो हर नई जगह सर्वाइव और शासन करने का साहस रखने वाला व्यक्ति कितने विपरीत हैं हम। मेरे कई सारे राजों को सीने में दफन करने वाला वो शख्स सच में हक़ योगी सा लगता है। पीछे मुड़ता हूँ तो कभी-कभी मुझे लगता है जैसे वो गोद लिया गया हो उसके माँ-बाप कहीं सौतेले न हों। (आश्चर्य एक बार तो पूछ भी लिया था मैंने) ये ख्याल अक्सर तब आता है जब उसका विचार और संघर्ष जो शायद नहीं होने थे साफ-साफ दूर से ही दिखने लगते हैं। बारहवीं करने के बाद कोई बड़ा तो नहीं हो जाता पर मुझे लगता है वो हो गया था। उसकी जिद थी या उसका एकहड़ियापन था कि उसने बस इसी को सार बना लिया था ये उसका बल था कि निर्बलता इस पर मैंने कभी विचार नहीं किया। बारहवीं के बाद उसने अपने हाथों में अपनी जिम्मेदारी ले ली थी जो उसके लिए कब ताकत से कमज़ोरी बन गई कोई जवाब नहीं है इसका। बात शुरुआती मुलाकात से बहुत आगे निकल गई थी मैं अक्सर चर्चाओं में अपनी बातें रख देता था पर उसने कभी अपने बारे में अधिक विस्तार से विवरण पेश नहीं किया। बादलों से घि...
नींद में खलल है फिर, हृदय हुआ है अस्थिर। ये मिज़ाज़ है मौसम का या कोई लम्हा रोया है, कराह है चारों तरफ, दुख रहा है तिर। मेहमाँ भी मेजबान बन बैठे है आशियाने में, उड़ जाने वाला पँछी कहीं सुदूर देशों में, बैठा है अब चिर। नींद में खलल है फिर.....