...*

कलम में स्याही नहीं लहू भर गया है,
आते-जाते सरे राह टोकता नहीं कोई
यूँ लगता है मेरे अंदर का वो मर गया है।

कुछ रौनक सी कुछ चहल-पहल सी लौटी है,
लगता है, जाते-जाते वीराने को आबाद कर गया है।

शुष्क है बाहर का मौसम पर भीग गया हूँ,
यूँ लगता है भीतर कोई बरस कर गया है।


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