एक कमीज वाला-2

आज फिर देखा मैंने वो लड़का .............................

हाँ.......!   वही "एक कमीज वाला"...
    
उसका बचपन बड़ा अजीब था..."ना कागज की कश्ती थी ना बारिश का पानी,
था तो एक अभाव में पनपा शरीर और एक अनसुलझा धागा इस दौर-ए-ज़िन्दगानी का,,,"
         
      आज जीवन का 28वां बैशाख चढ़ रहा था जब उसने इस रंग को मेरे सामने किया तो याद आया वही तमगा जो यादों की धुंधली सी रोशनी में छिपने सा लगा था "एक कमीज वाला"  हाँ ये वही रंग था जिसने उसे स्वयं से घृणित नजरें, चोर नजरों से देखने को मजबूर किया था शायद!

        मैंने बताया था पहले भी ना कि उसके पास किशोरावस्था के उस अंतर्द्वंद्व भरे काल में एक हरे रंग की कमीज हुआ करती थी एक कमीज नहीं हाँ....एक मात्र कमीज हुआ करती थी,
जिसे पहन कर मानो एक दौर कटा हो ज़िन्दगी का और उसी दौर में एक नाम भी पड़ा उस कमीज की बदौलत................"एक कमीज वाला"...

   तब शायद ये नाम सुनकर वो बहुत आहत होता होगा आहत नहीं बल्कि झकझोर हो उठता होगा वो, पर अब उन दिनों को याद कर उसे हंसी आती है वक़्त की उस ठिठोली पर,
वक़्त को भी कोई नहीं मिला हंसी-मजाक करने को फिर क्या था उसने भी हाथ आजमा लिया इस नन्ही सी जान पर...और कामयाब रहा वक़्त उसके बचपने को, उसके लड़कपन को, उसकी मासूमियत को छीनने में...

       तो क्या हुआ वक़्त ने उस वक़्त ये सब छीन लिया था पर अब वक़्त की बादशाहत को मात देकर ये प्यादा आज शतरंज की मोहरों पर अपनी बिसात बिछाए बैठा है,

अब भी उसके पास इस रंग की एक मात्र कमीज़ है पर आज उसे डर नहीं लगता नाज से इस रंग को पहने घूम रहा है बस इस बात का जवाब कभी दे तो नहीं पाया किसी को पर इंतज़ार है कोई कहीं से आकर उसे ये कह दे ............."एक कमीज वाला"........

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