"बैशाखी पौधा"
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भादो मास के थपेड़ों को सहकर भी उसने हिम्मत की थी एक बीज को बो कर उसे परवरिश देने की,,
अपनी बंजर हो चुकी ज़मीन पर दस साल बाद ये बीज कहीं बोया ,,,
मालूम उसे भी नहीं था कि ज़मीन फिर से हरी-भरी होगी पर ऊपर वाले का खेल और ज़मीं पर "भगवान" का सा साक्षात्कार था कि बीज के अंकुरित होने के आसार से होने लगे,
वो छोटा सा बीज बैशाख मास की गर्म फुहारों में आज ही के दिन अंकुरित होकर ज़मीं पर अपना अस्तित्व खोजने की हिमाकत करने लगा था,,
नौ महीने की जद्दोज़हद के बाद ये चाँद आँगन में किलकारियां भरने लगा,,,
अजी हाँ.......आज ही का दिन था वो............
"उसकी हिम्मत और इसकी हिमाकत काबिल-ए-तारीफ़ थी"...........
क्योंकि परवरिश का तजुर्बा वहाँ ढल चुका था और ये नाज़ुक सा अंकुरण पूरा ध्यान अपनी परवरिश में चाहता था,,,
कितनी अजीब रवानगी है ना ज़िन्दगी की....
ये अनचाहा बीज जो अब अँकुरित भी हो चुका था इसे तवज्जो ना मिली उतनी जितनी इस नन्ही सी जान को मिलनी चाहिए थी,,,,
पर ज़िद थी इसकी भी ख़ुद को सूरज की तपती लौ में खड़ा करके बड़ा बनाने की,
सफ़र कुछ यूं ही ज़िद से ही शुरू होता है......और इस तपती धूप में वो सोना तप-तप कर कुंदन बन गया,,
आज दौर-ए-अज़ीज़ कुछ यूं है कि वो अंकुरित बीज अपने जैसे अनचाहे पौधों को परवरिश देकर समाज के उलझे तानेबाने को सुलझाने के लिए तैयार करता है,,,,,और बेपरवाही से बैठ जाता है ख़ाक की ढेरी पर,,,
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