साला दोस्त

बात उन दिनों की है जब हम दुनिया की सैर किया करते थे, अलग-अलग देशों के नाम अपने अनुसार रख लिया करते थे। उस शाम एक अलग रूप देखने को मिला उसका जब हम अफ्रीकी देशों में घूमते हुए नया बाजार पिथौरागढ़ पहुँचे, वहीं पर बाएं हाथ को किसी फ्रिज वगैरा की शॉप थी शायद वो वहां ठिठका और दुकानदार से बड़े अजब लहजे में बात करने लगा.. मैं हैरान था थोड़ा सा फिर आगे निकलते हुए टोक भी दिया कैसे बात करते हो बे....?

वो बोलता है, तुझे पता है मैंने इसके यहां जॉब की है! मैं चुप हो गया दरअसल मुझे लगता था कि मैं कभी पिथौरागढ़ जैसे शहर में जॉब कर ही नहीं सकता किसी दुकान में तो कत्तई नहीं, बेशक पूर्व में मैं सिडकुल की खाक छान आया था, पर ये सुनना मेरे लिए बिल्कुल अलग अनुभव था मैं उसे सुन कम रहा था मेरे अंदर विचारों का सैलाब ज्यादा निकल रहा था। तो उस शाम कई बातें उससे सुनी सीखने मिली, मालूम पड़ा कि वो 12वीं के बाद ही कमाने के कई तौर-तरीकों से रूबरू हो गया था। मुझे लगता था जिसका बाप फौजी हो साला वो कहाँ ऐसे काम करेगा मेरी तरह.. हम ठैरे सबसे निचले तबके के लोग जिन्होंने दो रुपये स्कूल फीस के लिए भी संघर्ष किया, पर वो तो कमसे कम अच्छे घर में पैदा हुआ था। कैसे मानक है ना जिंदगी के वो मेरे लिहाज से अच्छे घर में पैदा हुआ था, और उसकी जिल्लतें मुझे अच्छा घर का मानती थी।

उससे मेरी मुलाकात भी बड़ी अज़ीब असमंजसों भरी ही थी, मैं उन दिनों बैंकिंग के फॉर्म भरा करता था  हालांकि मुझे गणित नाम के किसी विषय से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था और बैंकिंग गणित का दूसरा नाम था।

जिस संस्थान में मैं पढ़ने जाया करता था वहां से दो लोग थे जिनके साथ मुझे जाना था हल्द्वानी, बस में पहुँचकर मालूम पड़ा कि कोई तीसरा भी था इनके साथ जो पहले से बस में बैठा हुआ था इसलिए कि उसे खिड़की वाली सीट चाहिए थी। बहरहाल हम निकले ये महाशय हमसे पीछे वाली सीट में बैठे थे थोड़ी देर तो बात-चीत होती रही फिर अचानक पीछे से निकलने वाली आवाज़ें अवा-2 में बदलने लगी वो महाशय जो पूछे बैठे थे उनकी उल्टियों का दौर शुरू हो गया था जो एक बार अल्मोड़ा पहुंचते हुए गोल्ज्यू पर रूका, पर वहां से जैसे ही आगे बढे फिर वही सिलसिला चल निकला।

हमें हल्द्वानी पहुंचते शाम हो गई जैसे ही वहाँ पहुंचे सीधे एक रेस्तरां में गए जहाँ सबसे पूछा गया क्या लोगे तो सबने अपनी पसन्द बताई, पर उस शख्स ने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया, और फिर जैसे ही खाने की सामग्री पहुँची सबसे पहले चखता हूँ के नाम पर सबका हिस्सा खा गए महाशय। दरअसल मैं तो वैसे ही असहज था उनके बीच फिर इसकी हरकतें बड़ी इर्रिटेट करने वाली सी लगी, खैर जो भी हो पड़ेगा तो हँसी आएगी बे तुझे।

वहां से बाहर निकले तो वो जो दो लोग अन्य थे जॉनके साथ मैं यहाँ आया था उनके एक महिला और एक पुरुष थे जो अपने-अपने मित्रों और परिचितों के यहाँ निकल गए, रह गए हम दो।

भाई साहब उन महाशय से पहले ही ऊब चुका था ऊपर से उनकी हड़बड़ी कभी कहें कि यहाँ कमरा लेंगे कभी कहें यहां..... फिर उन महाशय ने किसी परिचित को फोन किया तो उन्होंने बताया कहाँ ठहरना है बिना सोचें आव देखा न ताव पहुंच गए उनके बताए होटल में.. वो होटल था....? क्या बात करते हो अगर वो होटल था तो फिर हम सड़क में ही सही थे. हम बाहर आये दूसरी जगह होटल लिया फिर अंदर पहुंचते ही खाना फिर सोना तय हो चला। ये भाई साहब खाने को ले गए किसी ठेली में और खाये क्या मोमो. पूछे हो गया कि और कुछ खाना है.? मैं भी शरीफ और समझदार जैसे मेहमान बना हूँ बोला हो गया। होटल पहुंचे तो ये श्रीमान किताब खोल के बैठ गए हाहाहा बड़ा अजीब मंज़र था एक से एक रूप दिखाए इन्होंने...

रात 12 बज गए थे फिर गप्पों का सिलसिला चला मैं सब कुछ बयां कर दिया उसी दिन कुछ बुजुर्गों वाली बातें, कुछ इनसे भी सुन लिया। चलो जैसे तैसे सोये थे, नींद कहाँ पूरी होनी थी भयंकर नींद थी बस के सफर की, ये महाशय सुबह 5 बजे उठा दिए और एक चक्कर नीचे रिसेप्शन के भी लगा आये बोले गेट बंद है।

खैर पेपर तो 10 से था ये बिना नास्ते के सुबह 8 बजे चेकआउट करवा दिए फिर बोले शाम को मिलेंगे...

मन ही मन इतना गुस्सा भर लिया था मैंने एक तो शाम को खाने नहीं दिया अभी बिना नास्ते के जा रहे है वहां सेंटर पर डेढ़ घण्टे पहले पहुंचकर इंतज़ार करते हुए दो ही विचार घूम रहा थे मुझ में एक ये महाशय दूसरा खाना....

वापसी के समय की हरकतें और पूरे सात सालों का साथ में सफर अगली कड़ी में जारी रहेगा पढ़ते रहिएगा साला दोस्त.........

Comments

Popular posts from this blog

पहाड़ का रोना