चंद दिनों का गांव
कद नभ सा हिमालय सी छांव,
ख्वाहिशें आजीवन की हैं पर,
नहीं ठहरते कुछ पल पांव,
हाँ अब रह गया चंद दिनों का गांव.।
मैं विचरता आवारा सा,
वो ठहरा घोसले सा ठाँव,
सरल, सौम्य उजले पानी सा,
हाँ रह गया चंद दिनों का गांव।
ज्यूँ शहर सा बड़ा होता जाता,
जुड़ता जाता मुझसे गांव,
जितना फैलूँ जकड़ता जाता,
ये जैसे शिशु का आंव,
हाँ देखो रह गया है चंद दिनों का गांव।
कभी जूझता जुड़ने जाता,
वापसी को असफल सारे दांव,
अब तो बस रहा गया है चंद दिनों का गांव।।
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