दिन
एक वो थे बेफिक्री की रवानगी थी,
फिर एक वो आये जब चीजें न थी पर कल्पना संसार था,
फिर एक वो आये जब अभाव मालूम हुए,
फिर एक वो आये जब अभावों के घेरे से सशंकित हुए,
फिर एक वो आये जब कल्पनाएं डराने लगी,
फिर एक वो आये जब डर हावी होने लगा,
फिर एक वो आये जब दर्द ने इंतेहा तक सताया,
फिर एक वो आये जब संघर्ष में गुत्थमगुत्था हुए,
फिर एक वो आये जब अंधेरा छँटा, उजाले ने साथ दिया,
फिर एक वो आये जब उजाले में अकेला रह गया,
फिर एक वो आये जब सिलसिले शुरू हुए जुड़ने के,
फिर एक वो आये जब सब छँट कर रह गए,
फिर एक वो आये जब सारी टहनियां कट गई एक सिरा रह गया,
फिर ये दिन हैं अब भी अकेलेपन की शीशियाँ टूटती हैं तरल बहता है, बस सुरमा नहीं बहता आंखों की कालिख़ आँखों में ही रहती हैं।
ये दिन हैं जब तब और अब
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