बासी भात
गर्त में कितना कुछ दफन है,
दुपहरी के समय ऑफिस पास में होने के कारण भोजन बनाने का जिम्मा मेरे पास था, घर पहुंचा तो दाल पहले से सुमन बना गई थी, मुझे केवल भात बनाना था। कुछ दिनों पहले ही डेढ़ साल बाद सुमन ने अपनी ड्यूटी जॉइन कर ली तो, काफी समय बाद किचन में प्रवेश किया।
भात बनाने को बर्तन देखे तो 3 प्रकार के चावल रखे थे, एक पतले लंबे दाने वाला बासमती, एक दूसरा मोटे दाने वाला चावल और एक घर का लाल चावल।
इन्हीं को देखकर याद आया अभावों का दौर जब 5 भाई-बहनों वाले घर में बासी भात के लिए संघर्ष चलता था। हालांकि सबसे बड़ी दीदी थी उसका विवाह हो चुका था जब तक मैं इस दौर को लिख रहा हूँ उसमें 3 ही मुख्य किरदार थे दीदी के बाद दूसरे नम्बर के बड़े भाई हैं वो अब सबसे बड़े थे और समझदार भी तो वो इसमें नहीं कूदते थे। बाकि बचे हम तीन दीदी, छोटे दाज्यू और मैं, हमारे बीच चलता था एक युद्ध जिसे नाम दिया है बासी भात।
पिताजी दिन भर काम के लिए बाहर रहते थे और ईजा घर के कामों में उलझी हुई। खाने को कोई कमी तो राशन की नहीं थी पर कई बार ऐसा होता था कि घराट नहीं जा पाने के कारण सुबह रोटी बनाने के लिए मंडुवा, जौ या मक्का हथचक्की में घर में ही पीसना होता था औऱ ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहता था क्योंकि गाँव में चक्की नहीं थी बस घराट ही थे वो भी गाँव के बिल्कुल जड़ में काली नदी के किनारे। ऐसे में रोज वहां नहीं जाया जा सकता था यहाँ तक कि गए भी तो कई बार दूसरे दिन बारी आती थी या फिर पूरा दिन जरूर लगता था और घराट के लिए लोग रात को 11बजे से 5 बजे के बीच निकलते थे ताकि घराट खाली मिले और वे अन्न पीस कर ला सकें।
ये तो रोटी का संघर्ष था जो सबके घरों में चलता ही था। पर बात भात की करूँ तो घर में बोया जाने वाला लाल चावल केवल कुछ महीनों के लिए होता था जिसे साल भर चलाने के लिए बहुत संघर्ष करने पड़ते थे। गल्ले से चावल मिलते तो थे पर नकदी न होने के कारण या तो मात्रा कम लाते थे या फिर ला ही नहीं पाते थे। ऐसे में भात केवल दिन के एक समय बन सकता था वो भी तब जब सब घर में हों। पिताजी शाम को घर वापस आते थे और वो रस्यारे (अपने हाथ का बना खाने वाले, जो अक्सर पहाड़ों में सभी परिवार के मुखिया होते ही थे, उनके खाने तक खाने को छूना भी मना होता था यदि किसी सदस्य ने छूँ लिया तो रस्यारा भोजन नहीं करता था) थे तो भात स्वयं बनाते थे। हमारे आस-पास शायद 1-2 ही परिवार ऐसे थे जो सम्पन्न थे और उन्हें भात खाने को लेकर समय या लोगों के एकत्र होने की आवश्यकता नहीं थी शायद वे लोग नौकरीशुदा थे और वे गल्ले से राशन खरीद सकते थे, इसलिए उनके घरों में दिन में भात बनता था। हम लोग दिन में अक्सर उनके घरों के आस-पास होते थे कि शायद हमें भी भात मिल जाये, पर ऐसे अवसर कभी नहीं आते थे।
हम शाम को पूरे परिवार संग भात खाते थे और शांति तभी मिलती थी पर तृप्ति बचे हुए बासी भात को खाकर ही मिलती थी।
बासी भात तो तीनों को मिल ही जाता था पर हम तीनों का संघर्ष चलता था कि कौन कढ़ाई में खायेगा क्योंकि कढ़ाई में बासी भात को घी या मक्खन में गर्म किया जाता था और उसका वो स्वाद बेशक पूरी दुनिया के स्वाद को फीका कर देता था। मैं तो छोटा था इसलिए अक्सर लड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी पर दीदी और छोटे ददा के बीच एक युद्ध सा हो जाता था और ये बासी भात का युद्ध रोज का था। कई बार माना बासी भात कम बचा हो तो दही के साथ अकेले मुझे खाने को मिलता था और मैं चिड़ा कर इतरा कर खाता था।
यकीन नहीं होता वो दौर और आज के दौर में इतना अंतर हो गया है आज बासी भात पर होने वाले ऐसे युद्धों को सुनकर क्या लोग यकीन कर सकेंगे? सोचता हूँ तो मैं खुद को रोक नहीं पाता और एक गमगीन सा माहौल बन जाता है आस-पास
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