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Showing posts from 2020

मैं आँसू क्यों न बहाऊँ

मैं आँसू क्यों न बहाऊँ.? जिस रोज अकेला पड़ जाऊँ, फिकर किसे खाऊं या बिन खाये सो जाऊँ. देर सबेर घर से निकलूँ, घर आऊँ, तिबारी में झाँकता सिर न पाऊँ, अंधेरा जरा बढ़ जाये, दाज्यू घर न आये, समय हो जब खाने का धाद किसे लगाऊँ, दूर कहीं से आऊँ, न छांछ, न छांव पाऊँ, वैसी ही लाड़ भरी नजरें कहाँ से मैं लाऊँ, गाँव जाऊँ, बल्द-गोरु तो फिर से पालूं, फेरते न रहना गोरुं को पानी पिला देना,       वो गरजती आवाज़ कहाँ से लाऊँ.? रंगीन दुनिया में सब तरह के लोग हैं ईजा, झुकी कमर, मोटा चश्मा, थकी हुई सांसे,     मैं उस खुदा को कैसे भूल जाऊँ,          मैं आँसू क्यों न बहाऊँ?

भाव शून्य

भाव शून्यता भी एक भाव है, ईजा का न होना भी एक घाव है, तू न समझेगा जाने दे भगवान इसे, तेरे सर पर अभी ईजा की छांव है। 8 साल (04 सितम्बर, 2012)

सावन यानि देवताओं का कैलाश काल

सावन का महीना और आप यदि सीमांत के किसी गाँव मे जाते हैं तो हर घर में एक ही चीज आम होगी वो हर घर के दरवाजे और खिड़कियों में लगे काटें और बिच्छू घास की टहनियां। ये किसी भी नये व्यक्ति के किये कौतूहल हो सकता है पर सीमांत के लिए ये एक परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है। सावन को काला महीना कहा जाता है इस माह में कोई शुभ कार्य नहीं किये जा सकते क्योंकि इस काल में आराध्य देवता कैलाश वास में होते हैं। सावन के शुरू होने से पहले गाँवों में पूजा शुरू हो जाती हैं, देवता अपने धामी/पश्वा में अवतरित होकर बताते हैं कि वे इस तिथि को कैलाश जा रहे हैं, हर बरस की भांति किसी एक देवता को ग्राम रक्षा की जिम्मेदारी भी मिलती है। वो सब इसी दिन तय हो जाता है देवता चेताते हैं कि हमारी अनुपस्थिति में क्या नहीं करना हैं और कैसे बचे रहना है।  सावन शुरू होने से पूर्व की शाम को ही सिन्ना(बिच्छू), किलमोड़ा और ऐरुवा (एक विशेष प्रकार का कांटेदार झाड़ीनुमा पौधा) लेकर लोग अपने घरों के दरवाजों, खिड़कियों तथा गोठ(पशु निवास स्थल) में लगा देते हैं मान्यता हैं कि देवताओं की अनुपस्थिति में कोई बुराई घर में प्रवेश न कर सके इसलि...

शब्द

रच लेते हैं कुछ शब्द ही एक कहानी को, कभी शब्दों की अपनी कहानी नहीं होती। कतरा-कतरा बयां कर देते हैं हर दर्द को, कभी शब्दों की अपनी जुबानी नहीं होती।। भेद लेते हैं हाड़-माँस के आदमी को, कभी शब्दों को अपनी कटार चलानी नहीं होती।। जरूरतानुसार बेच लेते हैं खुद को, कभी शब्दों को अपनी दुकान सजानी नहीं होती।  जीत लेते हैं पिछड़ के भी दिलों को, कभी शब्दों की अपनी अगवानी नहीं होती। खुद ही बना लेते हैं हरफ़ ये खरीददार को, कभी शब्दों की अपनी जजमानी नहीं होती।। पलट लेते हैं हर धारा की दिशा को, कभी शब्दों की अपनी नौजवानी नहीं होती। स्वयं घेर लाते है मेहमानों को, कभी शब्दों की अपनी मेजबानी नहीं होती।।

शरद...

नसीहतें...! नहीं !  शिकायतों का अंबार लगा गया,               कहा तो नहीं पर शायद कहना था,                        मैं बदल रहा हूँ,                      जरा सा भावुक वो, ले गया, जहाँ अक्सर मैं भटकाव के बाद जाया करता हूँ,                     कहता है याद है तुझे.?                  रात पेशानी में बड़ा जोर रहा मेरे..                                  क्या भूल गया मैं.?         संवरते-संवरते कहीं बिखरने लगा हूँ शायद.!         या फिर बिखरा सा था कभी सँवरा ही नहीं,                         जो भी हो... मेरे लड़खड़ाने की आवाज़ तुझ तक पहुंच तो रही है न,     फिर भी अडि...

बलना

एक नाम शहर का पुराना, एक ख़्वाब जाना पहचाना, एक वक्त आना-जाना... कभी उगते हुए सूरज सा उजाला कभी डूब जाने को तैयार अंधियारा, शहर एक ख़्वाब का, क्यों न ख़्वाब शहर ही कहूँ, शहर का जन्मना अक्सर किसी को याद नहीं रहता, एक शहर का मर जाना इतिहास में दर्ज हो जाता है।

मैं और मेरी जिंदगी...

बड़ी हसरतों से बोए थे दो ख्वाब, एक सुबह ने तोड़ी, एक शाम ने..

क्या!     अरे..

एकांत! उस तरफ पीठ, निगाहें! भीगी हुई डीठ, मैला आँचल! नई फसल की रीठ, सर्द हवा! जली हुई अंगीठ, छुरा! मित्र की पीठ, शर्म! बेहया अव्वल ढीठ, पहचान! कद बड़ा गरीठ, गुण! जैसे फल कवीठ, ज्ञान! चला...

वक्ती इश्क़

एक शहर था, मैं था, ठिया था, ठियेदारी थी, अर्जी थी, अर्जीनवीस थे, बातें थी, रातें थी, कुछ नींद थी, कुछ उनींद थी, शहीदी की जमात थी, तरकस था, तीर थे, अनेकों मगर वीर थे, एक तीर, मगर सटीक, खाल...

बिंदू

बिंदू अगस्त महीने के आखिरी दिन हल्की धूप और हवा के बीच आँगन में कुर्सी डालकर तीन लोग बैठे थे।   अचानक ही जोर से रोने के साथ मंद सी आवाज़ सुनाई देती है   इतना ही था फिर साथ हां   बिंदु के गले में हाथ डालकर 77-78 वर्षीय दीलपु कह रहा था। बिंदु यानि दीलपु के लम्बे सँघर्ष की सहगामिनी , उसकी पत्नी जो पिछले 5-6 महीने से लगातार बीमार चल रही थी। दीलपु के बच्चों ने बहुत से डॉक्टरों को दिखाया तो किंतु कोई समाधान नहीं निकला था , वह पेट सम्बन्धी समस्याओं से जूझ रही थी।   बिंदु उमर में दीलपु से बहुत छोटी थी , इस समय उसकी उमर 54-55 वर्ष की थी पर बीमारी , संघर्ष और आँखों पर लगे मोटे चश्मों से वो दीलपु से भी अधिक उमर की दिखती थी। दीलपु और बिंदु की कहानी का शायद ये अंतिम दौर था। इनकी कहानी शुरू होती है शोबन सिंह नाम के दो बुड्ढों की वार्तालाप से , जिसमें वो अपने बच्चों के विवाह की चर्चा कर रहे हैं। बड़ा रोचक लगता है कि बिंदु और दीलपु दोनों के पिता का नाम शोबन सिंह ही था। शायद इसी वजह से इनके संघर्षों की साझा गाड़ी भी चल निकली थी। जिस समय इनका विवाह हुआ दीलपु...

तेरे जाने के बाद

हर रात भीगी सी रही जब, बिन सहारे सो न पाया तेरे जाने के बाद, हर कोना काटने है दौड़ता, उस घर मैं जा न पाया तेरे जाने के बाद, बातें बहुत हुई मगर, किसी की सुन न सका तेरे जाने के बाद, खेला नहीं शतरंज ताउम्र मगर, कोई हरा न सका तेरे जाने के बाद, करहन भुला न सूरत तेरी, दर्द मगर याद न रहा तेरे जाने के बाद, रुंआसा हर रोज रहा, रोना मगर याद न रहा तेरे जाने के बाद,

दंगा....

बारिश ने जमाई ऐसी कीच अबकी,      अक्ल ठिकाने आ गई है सबकी, लिबास तो नहीं बिगड़े, हृदय रंगे हुए है,                 सुना है फिर से दंगे हुए है. कुछ तो चिराग मिटे, कुछ बेघर ही हुए है, अभी और भी कितना टूटेगा क्या मालूम, अभी हाल-ए-समाज जर्जर हुए है, ये किस तिलिस्म की आगोस में हैं जहाँ वाले भगवान, बिगड़ा उनका नहीं जो दंगाई थे, इतिहास देखो जहाँ दंगा हुआ है, वो शान से फले-फुले हैं, बस हर बार जमींदोज तिरंगा हुआ है.

पहाड़

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ये पहाड़ है, प्रकृति का नजारा मात्र नहीं, यहाँ जीवन ही पहाड़ है, उम्र इंसान को ठहरा देती है, और ये आमा उम्र को ठहरा रही है. मेरी ईजा की उम्र ज्यादा तो नहीं थी 55-56 वर्ष की आयु में वो स्वर्गवासी हो गई थी. पर उनपर भी पहाड़ जैसा बोझ कुछ इस तरह ही था लगता है। कमर यूँही झुकी हुई थी, काम इस तरह ही कठिन। मैं अक्सर कहा करता था आराम कर आराम करने के दिन है। ये भी कोई काम करने के दिन है तो वो कहती कुछ नहीं थी बस मुझपर शादी का बोझ डालने को कहती थी और मैं हमेशा शादी की बात से भाग जाया करता, और मुद्दा यहीं समाप्त हो जाया करता. वो रोजमर्रा के इन्हीं कामों में और मैं अपने आप में अपनी दूसरी दुनिया बनाने में मग्न.  याद आता है हज़ारों फ़ीट ऊंची ऐसी पहाड़ियां जहां से कुछ गिर जाता तो वो नीचे 2-3 हजार फ़ीट की गहराई नापता। 2013 में मेरी एक मुंहबोली दीदी ऐसी ही पहाड़ी से गिर गई थी। मैं तो घर में न था पर लोगों ने बताया कि उनके शरीर को मात्र 5 किलो की थैली में भरके लाया गया था। इस तरह के कठिन जगहों में मेरी ईजा घास काटने जाती थी वो भी लगभग इतनी ही कमर झुकी झर्रियों से भरा चेहरा, मोतियाबिंद का ऑपरेशन के...