चुप्पी
नहीं मैं ऐसा नहीं कि अक्सर खामोश हो जाऊँ और खामोशी लिए रहूँ देर तक।
घर जहाँ मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ सीख ली दुनिया भर की, मैं यहाँ बैठकर बस यही सोचता हूँ कि मैं यही हूँ या फिर वो हूँ जो दुनिया के सम्मुख हूँ, हँसता हुआ, समझदार, हल्का, वजनी, नासमझ, सोचता, विचार करता।
सवाल बहुत है पर आज फिरसे वही अजीब सी शांति पसरी हुई है मेरे जेहन में, मेरे आस-पास सब जगह।
मैं चुप हूँ, चुप्पी लिए हुए हूँ।
कारण नहीं है कुछ भी आँखे जरा नम है। उन अंधेरों में जिनसे अक्सर मैं डर जाया करता था आज उन्ही अंधेरों में खामोश बैठा हूँ, एक बुत की तरह, बिल्कुल बुत की।तरह।
आज सालों पहले का अकेलापन फिरसे डरा रहा है मुझे मैं अकेला हूँ या फिर दुनिया में खोकर मैंने जरा सा भुला दिया खुद को और मैं यही हूँ जो अभी हूँ?
ये सवाल हमेशा सवाल ही रहेगा क्योंकि मैं फिरसे दुनिया की भीड़ में सम्मिलित होने को कुछ रोज बाद जाऊँगा और फिर उसी दुनिया का हो जाऊँगा।
ना ये शांति होगी कहीं पसरी हुई ना मैं चुप रहूंगा, चुप्पी मुझे शायद जँचती ही नहीं है।
हैं ना अजब चुप्पी।
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