आग, तेल और लूण

कई बार बचपन को याद करके बड़ा अनूठा और डर या फिर यूँ कहूँ शर्मिंदगी से भरा दौर भी याद आ जाता है।

पहाड़ों में साधन की कमी तो सदियों से चली आ रही दास्तान है, इसी में एक दौर जिसे उकेर पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल वो दौर था।

बात शुरू करता हूँ मैं 91 में पैदा हुआ यानि ऐसे परिवर्तन वाले दौर में जहाँ दुनिया वैश्वीकरण की ओर थी और हम बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते थे। स्थिति बताने के लिए शायद इतना काफी होगा कि मैं 7वीं में पढ़ता था तब खाकी स्कूल ड्रेस की एकमात्र पेंट थी मेरे पास और अंडरवीयर की तो बात ही क्या करनी। एकमात्र पैंट वही घर में और वही स्कूल में पहनने को मजबूर अक्सर गन्दी हो जाने पर शाम के समय धोता था और अन्य एक पजामा जैसा था भी तो पिछवाड़े में दो बड़े चश्में जैसे टाँके लगे हुए थे जिसे पहनने में शर्मिंदगी अलग थी। ये तो छोड़िए मात्र ₹ 2 उस दौर में स्कूल फीस होती थी वो भी हमेशा लेट हो जाती थी अब हँसी भी आती सोचकर और ये सोचकर थोड़ा सहम सा भी जाता हूँ कि पिताजी भाई ये लोगों के लिए कितना मुश्किल दौर रहा होगा वो।

खैर उस और न जाते हुए टॉपिक में आता हूँ। इस दौर में बिजली थी नहीं एक-दो लम्फु(लैंप) थे जिनमें अक्सर मिट्टी का तेल खत्म हो जाता था एक-दो बत्तियां ईजा ने शीशे की छोटी शीशियों के ढक्कन में छेद कर बनाये थे तो बत्तियां हो जाती थी पूरे घर के लिए।

बचपन के उन दिनों की याद आती है तो मन भारी भी हो जाता है कि कैसे दौर में थे हम लोग, घर में बिछौने के गुदड़े (कपड़ों को सीकर बनाये गद्दे) थे जिनमें असंख्य पिस्सुओं और जूँओं का अधिवास भी होता था, जो रात भर कितना खून चूसते होंगे मालूम नहीं।

अक्सर सुबह या दिन में माचिस न होने के कारण परघर, मलघर से आग के कोयले लाने होते थे, मिट्टी का तेल कंट्रोल में मिलता था पर ₹ के अभाव में वो भी महीने भर के लिए नहीं आ सकता था ऐसे में चन्द दिनों में खत्म हो जाता फिर वही पेंचों (अपने पास होने पर वापस करते थे) लेना पड़ता था।

एक और चीज जिसके लिए हमेशा संघर्ष करना पड़ता था वो था लूण(नमक) आज तो विभिन्न प्रकार के नमक बाजार में है उस समय मोटे दानों वाला नमक जो 4₹ किलो मिलता था अक्सर खत्म हो जाता था फिर वही पेंचों मांगकर लाना होता था।

हालाँकि ऐसे केवल हम एकमात्र नहीं करते थे बल्कि तलघर, मलघर, परघर सबके साथ यही समस्या थी और ये सामान्य सी बात थी पर हमारे बालमन में ये चीजें कहाँ आ पाती जब भी मांगने का समय आता समझ लीजिए हम जड़वत हो जाते थे। मांगना क्यों पड़ता है ये सोचकर और माँगने जाने में होने वाली शर्मिंदगी आज भी सोचता हूँ तो वही सरसरी जेहन में दौड़ने लगती है।

हाँ पर ईजा-बाबा की मेहनत खेतों में थी, खेत से रुपया तो नहीं मिलता था पर हाँ वर्ष भर का अनाज और भरपूर घी-दूध हमेशा होता था। ये उनके हाथ में था पर उनके हाथ में जो नहीं था वो था रुपया जिसकी जद्दोजहत करने आज हम घरों से कोसों दूर रहकर उस दौर को स्मृत कर रहे हैं।

बस स्मृति आग, तेल और लूण के उस दौर से आज कोसों दूर बहुत दूर जाकर भी कभी-कबार यात्रा करा लौटती है।

Comments

  1. समय बदलता है जरूरतें बदलती है और किसी न किसी बात की कमी ताउम्र रहती है... और हमेशा जो हमारा आज है वो कल आने पर ज्यादा याद आता है...

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  2. कुछ बातें ऐसी है जिन्हे पढ़ कर मुझे भी अपना बचपन याद आया सर 🙏

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  3. बिल्कुल सत्य.. सस्ते गल्ले से मिट्टी तेल भी बहुत कम मिलता था, घर में यह कह कर उसे बचा बचा के इस्तेमाल किया जाता था कि जिस दिन मेहमान आएंगे उस दिन क्या करेंगे तो अन्य समय में छिलुके (चीड के पेड़ की लीसे वाली लकड़ी) जलाया करते थे...जब हाई स्कूल के पेपर दिए थे गोठ (पशुओं के रहने वाली जगह) गाय बकरियों के बगल पर बाज के पत्ते बिछा कर उसके उप्पर गुदड़े बिछा कर... पिस्सुओं और छिलुकों के साथ रात भर दोस्ती रहती थी... चावल खाने का बहुत शौक रहता था... क्योंकि दिन रात मडूवे की रोटी खा कर परेशान हो जाते थे...तो पापा जिस दिन झूला या किलमोड की जड़ या गुइया (एक पेड़)की छाल बेच के लाते थे उस दिन हम खुश रहते थे कि आज चावल आएगा कल हम भात खाएंगे..। लुण तो होता था हमारे पास क्योंकि जिस दिन सब्जी न बनी वो बेस्ट ऑप्शन रहता था..., पर तेल देखना मुश्किल था ..एक कढ़ाई में बिना तेल के सब्जी बनती थी., और पैंट में दो टॉर्च जैसे जले रहते थे पीछे... गालिस वाली पैंट होती थी वो..,, पता नहीं भगवान ने कितना कष्ट और लिखा है ज़िन्दगी में क्योंकि अभी भी ज़िन्दगी कहीं भी सेट नहीं

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