हिमालय की गंध

टप-टप गिरते पानी की आवाज़, बाहर आती भयंकर नदी, बादल और पत्थरों के खिसकने की डरावनी आवाजें, घर में कैद करने के लिए बहुत था यह सब कुछ पर घर में टिके नहीं रहना, उसके दो कारण थे एक तो बरसात में घर रोता बहुत था और दूसरा कारण था कि घर में अपनी उम्र का कोई नहीं था मुझसे बड़ा भाई जो कि मुझसे 9 साल बड़ा था।

कुल मिलाकर घर में रुके रहने का कोई सवाल ही नहीं था, फिर भी घनी बारिश में रुके रहना मजबूरी थी। आज बच्चे के साथ सोचता हूँ काश उस समय भी रेन-रेन गो अवे जैसी कोई कविता सुनी होती तो जरूर गा रहा होता। हमारा बचपन अलग था पर बरसात में विशेष कर लगता कि ये बारिश होती क्यों है। ईजा बारिश से पहले ही पत्थरों में लगा हुआ ढेर सारा पाम इकट्ठा कर लेती थी और उसे छत में लगे पत्थर के स्लेटों के ऊपर ऐसे बिछा देती थी कि पत्थर चूंकर घर को रुलाये नहीं, ये पियास कई हद तक सफल भी होता था पर सतझड़ी यानि लगातार 7 दिनों की बरसात होने या फिर कई बार 2-3 दिन की बारिश में ही घर रोने लगता फिर हर जगह जहाँ से पानी चूंकर गिरता था वहाँ बर्तन रख देती थी ईजा।

बर्तन भरने का इंतजार करो फिर उसे फेंको फिर भरने दो फिर फेंको बस यही कार्य भीतर बैठे होता था। किताबें थी और किताबों से मोह नहीं था, बिजली का ज्ञान भी नहीं था उस समय तक कभी देखा भी नहीं था कि कोई ऐसी रोशनी भी होती है बस शाम होते-होते घर में ईजा के लम्फु या बत्तियां जल जाती थी। वो लम्फु
भी नहीं थे पूरे घर के लिए तो छोटी शीशी के ढक्कन में छेद कर उसमें कपड़ा डालकर मिट्टी के तेल के सहारे जलाया जाता था। मुफलिसी इतनी थी कि गल्ले में मिलने वाला मिट्टी का तेल भी पूरे महीने के लिए खरीद पाना सम्भव न था।

बहरहाल इन बरसाती दिनों में ईजा के पुराने कपड़ों से सिलकर बनाये हुए गुदड़ो में दिन बीतता था। नींद तो बस रात के इंतज़ार में रहती थी। पर हाँ इन्ही दिनों बाज्यू के साथ सुबह जल्दी उठकर जरूर जागरों को दोहरा लिया करता, याद थे कई जागर मुँह जुबानी, पर समय के साथ किसी आपदा के बाद की याद की तरह उन जागरों सार ही जेहन में बच पाए।
प्रसिद्द अंग्रेजी रचनाकार रुडयार्ड किपलिंग ने कहा है कि "गीली लकड़ियों के नम धुएँ की गंध..गीली काई और सड़ते चीड़ के बीजों की गंध, यही तो हिमालय के शरीर की गंध है।"

हम तो हिमालय की छाती में रहने वाले लोग हैं फिर यह गन्ध कैसे मर सकती है। अभी बरसात शुरू भी नहीं हुई है पर बीते रोज लगातार हो रही ने मुझे भी हिमालय की के शरीर की गंध स्मृत करवा ही दी। बशर्ते किसी सुविधा सम्पन्न व्यक्ति के लिए ये गन्ध अलग होगी मेरे लिए तो यह गन्ध मुझे मेरे पुराने और संघर्ष के दिनों की ही याद दिलाती है।



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