हर रोज की तरह, एक रोज आएगी
तुम ख़्वाब! सुकूँ बन जाओगे, मैं रोजमर्रा सा रहूँगा।


हर सुबह मैं ख़्वाब शहर आ जाता हूँ उठते ही आदत हो गई है मेरी सोचता हूँ कोई संदेश तो होगा, कुछ तो उकेरे होंगे तुमने अपने जीवन के किस्से कुछ खुशनुमा सन्देश कुछ दर्द की बातें। मैं रीता हो गया हूँ इन दिनों न आँखे गीली होती है, न कलम बढ़ती है, न एकांत का समय है सच कहूँ तो कभी डरता हूँ ये क्या हो गया मुझे फिर कभी सोचता हूँ सही तो है व्यस्त हो गया हूँ, और शायद तुम भी व्यस्त हो गए होंगे अपने परिसर में, जो भी हो लगता है जीवन आम सा हो गया है अब।

मैं हमेशा सोचता था कि साहिर, अमृता या इमरोज ही कहानी के पात्र है, एक सुधा भी थी वहाँ सदैव के लिए, ये बात जरा देर से जान सका।
तुम  अमृत भी हो सुधा भी, और मैं न साहिर न इमरोज। सच कहूँ तो मैं प्रीतम हूँ कहानी का वह हिस्सा जो सुन्न पड़ गया है। उस पर न तो किसी को कोई दिलचस्पी होनी थी और न ही उस तरफ कोई सोच।

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