करूँ कैसे

सुबह उठकर जातरा(हथ चक्की) चलाना, जौ-मंडुवा पीसकर रोटी बनाना, फिर दूध निकालना, मट्ठा बनाना, चढ़ती हुई धूप और अपने कामों से निवृत होकर जंगल/घास/लड़की लेने जाती दुनिया को देखकर हड़बड़ाते काम करते हाथों को....

दो-दो बहुएँ होते हुए भी अकेले अपने कम उम्र के सबसे छोटे बेटे का जिम्मा लिए कमज़ोर आंखों और शरीर के बराबर दुनिया की बराबरी करने वाली महिला को....

दर्द में कराहते, इलाज की कमी से झुझते, सम्भवतः भरपूर भोजन भी पूरे जीवन न पा सकने वाली उस महिला को...

सारी उम्र अपने बच्चों के अच्छे जीवन के लिए प्रयत्न करती, आखिर में उदास साँसों को त्यागकर बोझ मुक्त हो गुई उस महिला को....

मैं जिसे कुछ दे भी नहीं सका उसका त्याग सुबह से शाम तक उन बच्चों के लिए, खुद को भूखा रखकर पाले गए बलवान शरीर का मालिक होकर भी जिसे कुछ दे नहीं सका,

मैं महिला दिवस की बधाई देने के काबिल नहीं मैं जब उस महिला को नहीं बचा सका तो सबकी बात करूं कैसे......😢

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