न चलने में रौनक रही, न बैठे रहने में सुकून कहीं,
ए ठिठुरन लौट आ जीवन में मेरे, देखना जान न लेले ये जून कहीं,
बस्तियां सींचने को पानी मांगते है वो, और हम यूँही बिखेरते है खून कहीं,
यहां शहर में हर तरफ सूखा पसरा है कोई बता दो,
उन्हें तो बस चाहिए मानसून वहीं,
किसी के घावों में मरहम लगे भी कैसे,
जलने की जहां से बीमारी लगी है उन्हें, बिखरा पड़ा है नून वहीं,
न चलने में रौनक रही अब, न बैठे रहने में सुकून कहीं..
आज शाम की बारिश का न अंदाज़ा था हमें,
घर से निकले थे जिसे छोड़कर, मालूम हुआ महफ़िल में चर्चा का था मज़मून वही,
पिछली ही रात भुलाना चाहा था जिसे, सुबह अख़बार में देखा जान पड़ा शहर में लागू हुआ है कानून वही,
न चलने में रौनक रही अब, न बैठे रहने में सुकून कहीं..
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