वो...
मेरी कलम थामकर लिखता है,
बेशकीमत है फिर भी बिकता है,
नासमझ तो जरा भी नहीं असरार जानता है,
जाने पर उसे सूरज में भी चाँद दिखता है...!
लिखने को सीरसागर भरा पड़ा है उसकी स्याह में,
मग़र....! वो हर्फ़-दर-हर्फ़ मुझे ही लिखता है,,
सारा जहाँ उसका कायल मगर वो मेरा चाहनेवाला बन बैठा,,
उस शख्श को मुझ में ना जाने क्या दिखता है,,
मैं हिंदी प्रेमी हिंदी भाषी और छुटमुट सा काव्यांश हूँ,
वो मेरी हिन्द ज़मीन का जश्न-ए-रेख़्ता है,,
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