हाथ की चंद रेखाओं का खेल है देखो, कोई मुकद्दर बन गया, कोई बिछड़ गया,
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Showing posts from 2023
प्रेम
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प्रेम सहजता है, प्रेम सरलता है, प्रेम निश्छलता है, प्रेम सुंदरता है, प्रेम सरसता है, प्रेम आकर्षण है, प्रेम समर्पण है, प्रेम श्रद्धा है, प्रेम अंधा है, प्रेम प्राच्य है, प्रेम सुपाच्य है, प्रेम अनुभूति है, प्रेम अभिभूति है, प्रेम कलंदर है, प्रेम बंदर है, प्रेम बाहर है, प्रेम अंदर है, प्रेम लॉंछनीय, प्रेम वांछनीय, प्रेम चुनौती, प्रेम कटौती, प्रेम अंधियारा, प्रेम उजियारा, प्रेम तुम सा है, प्रेम हम सा है।
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अक्सर रोने की बातें बस स्त्री के हित में कही गई, लिखी गई और व्याख्या की गई। पर सच तो ये है कि मरद भी रोता है, हालात न हों काबू में जब, बनाकर न बनने लगे तब, ढूंढ एक संजीदा एकांत किनारा मरद भी रोता है, हाँ मरद भी रोता है। जब पिता गैर नियत निकले, माता भाव हीन निकले पुत्र नालायक निकले, पुत्री निर्लज्ज निकले, पत्नी कुलटा निकले, भाई कसाई निकले, बहन सूर्पनखा बन जाये, समाज दानवी हो जाये, अपने नोंच खाने लगे, तब एक मरद रोता है मरद के आँसू नहीं दिखते अक्सर पर जब रोता है तो बाढ़ आ जाती है, कई बस्तियां समा जाती है उसमें।
हिमालय की गंध
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टप-टप गिरते पानी की आवाज़, बाहर आती भयंकर नदी, बादल और पत्थरों के खिसकने की डरावनी आवाजें, घर में कैद करने के लिए बहुत था यह सब कुछ पर घर में टिके नहीं रहना, उसके दो कारण थे एक तो बरसात में घर रोता बहुत था और दूसरा कारण था कि घर में अपनी उम्र का कोई नहीं था मुझसे बड़ा भाई जो कि मुझसे 9 साल बड़ा था। कुल मिलाकर घर में रुके रहने का कोई सवाल ही नहीं था, फिर भी घनी बारिश में रुके रहना मजबूरी थी। आज बच्चे के साथ सोचता हूँ काश उस समय भी रेन-रेन गो अवे जैसी कोई कविता सुनी होती तो जरूर गा रहा होता। हमारा बचपन अलग था पर बरसात में विशेष कर लगता कि ये बारिश होती क्यों है। ईजा बारिश से पहले ही पत्थरों में लगा हुआ ढेर सारा पाम इकट्ठा कर लेती थी और उसे छत में लगे पत्थर के स्लेटों के ऊपर ऐसे बिछा देती थी कि पत्थर चूंकर घर को रुलाये नहीं, ये पियास कई हद तक सफल भी होता था पर सतझड़ी यानि लगातार 7 दिनों की बरसात होने या फिर कई बार 2-3 दिन की बारिश में ही घर रोने लगता फिर हर जगह जहाँ से पानी चूंकर गिरता था वहाँ बर्तन रख देती थी ईजा। बर्तन भरने का इंतजार करो फिर उसे फेंको फिर भरने दो फिर फेंको ...
बिन मतलब
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कभी बनके शाम आजा, कभी बिन बात के सहर बन। नीरस से गांव के गुण क्यों, चल ना आबाद जैसे वो शहर बन। अच्छा तो क्या नहीं लगता, सब लगे है, कभी बिन मलतब आये जैसे वो पहर बन। क्या पा लिया है उस रस्ते चल-चलाकर, गौरव से जहाँ चल सके, चल ना; वो डगर बन। कितना सरल बना दिया है ना तूने इसे! जीवन है तेरा । आके सब फँस जाये, चल ना वो भँवर बन। कभी तबाही की लहर बन, कभी चमचमाती दोपहर बन, कभी बनके शाम आजा, कभी बिन बात के सहर बन।