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बहुत लम्हों को लिए गर्व किये,
अकेले रहना था खुद ही लम्हात सर्व किये,

गमों की पोटली कसकर रख दी,
उनके लिए हर दिन पर्व किये.

मुखातिब होते रहे अंधेरे से हम,
मगर उनके ख़ुशी के हर ठिये रिजर्व किये,

खुद को तलाशते रहे दूसरों के दिलों में,
बिन सोचे हर फैसले अभूतपूर्व किये,

इन मसलों से क्या वास्ता न था अपना,
पर हर मसलों को हम गन्धर्व किये,

उनके जेहन में हम थे ही नहीं कभी,
बस हम ही पूजते रहे उन्हें शर्व किये,

शान्त रहने के आदी हुआ करते थे कभी,
कैसे हाल से खुद को दर्व किये,

सीढ़ी लगाई थी जमीं बनाने की मैंने,
कौन चला दिया इसे ऊर्ध्व किये,

कल तक फिराके 'मैं' लिए चलते रहे,
झुकने सा लगा खुद को निर्गर्व किये।।

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