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रीस

कबै निस्पात ए जां, त चोकरैण ए जां कबै, नॉर्मली शांत चित्त भ्यूं, पर देर-सबेर रीस ले ए जां कबै। काम खूब मन लगैक करणु, पर आदिमय त भ्यूं, पैनी ले जां कबै। आराम पसन्द आदिम भ्यूं, भरी नींद मे, अद्धि रात मे, कोई फोन जे करौ,  खुंचुरैण ए जां कबै, कबै निस्पात ए जां, त चोकरैण ए जां कबै।।
मेरा देश, देश नहीं मुकुट है धरा का, ये चोटी, चोटी नहीं  लकुट है अजा का, आओ कभी तो साल-दो साल ठहर भी जाओ, दो-चार पल का तो अंधेरा भी सुकून देता है। ये जो पहाड़ हैं पहाड़ नहीं है दरअसल, ये हौंसले हैं हिमाल के रहवासियों के, देखो! पहाड़ से हौसलें  हैं जहाँ, मेरा गाँव हैं वहाँ,  मेरा गाँव हैं वहाँ।।

बासी भात

गर्त में कितना कुछ दफन है,  दुपहरी के समय ऑफिस पास में होने के कारण भोजन बनाने का जिम्मा मेरे पास था, घर पहुंचा तो दाल पहले से सुमन बना गई थी, मुझे केवल भात बनाना था। कुछ दिनों पहले ही डेढ़ साल बाद सुमन ने अपनी ड्यूटी जॉइन कर ली तो, काफी समय बाद किचन में प्रवेश किया।  भात बनाने को बर्तन देखे तो 3 प्रकार के चावल रखे थे, एक पतले लंबे दाने वाला बासमती, एक दूसरा मोटे दाने वाला चावल और एक घर का लाल चावल। इन्हीं को देखकर याद आया अभावों का दौर जब 5 भाई-बहनों वाले घर में बासी भात के लिए संघर्ष चलता था। हालांकि सबसे बड़ी दीदी थी उसका विवाह हो चुका था जब तक मैं इस दौर को लिख रहा हूँ उसमें 3 ही मुख्य किरदार थे दीदी के बाद दूसरे नम्बर के बड़े भाई हैं वो अब सबसे बड़े थे और समझदार भी तो वो इसमें नहीं कूदते थे। बाकि बचे हम तीन दीदी, छोटे दाज्यू और मैं, हमारे बीच चलता था एक युद्ध जिसे नाम दिया है बासी भात। पिताजी दिन भर काम के लिए बाहर रहते थे और ईजा घर के कामों में उलझी हुई। खाने को कोई कमी तो राशन की नहीं थी पर कई बार ऐसा होता था कि घराट नहीं जा पाने के कारण सुबह रोटी बनाने के लिए मंडुवा, जौ या...
  वैसा ही मंजर, वही सूरते हाल है, जाने ईजा के उस लोक में क्या हाल-चाल है। ये वैसा ही दौर है न माँ जैसा तेरे वक्त था। तेरा एहसास, तेरे दर्द का एहसास दिलाता है।

शहर में भी गाँव रहते हैं

शहर में भी गाँव होते है, बेशक नहीं होती  यहाँ निर्मल नदियां, नहीं होते झरने, नहीं होते खेत, नहीं होती किसी से बेमतलब की भेंट, पर हाँ! शहर में भी गाँव होते हैं, नाम गाँव सा मुहल्ले का रखकर, लोग अपने गाँव को जिंदा रखते हैं, यादें रहती है गाँवों की इन शहरी बस्तियों में, पेड़ रहते हैं, गाँव के स्थान नाम रहते है, बस गाँव नहीं रहता शहर में, शहर में गाँव की भावनाएं रहती है, बसने की मजबूरियां रहती हैं, गाँव तो नहीं होता कोई शहर पर, शहर में भी गाँव बसते हैं।

आग, तेल और लूण

कई बार बचपन को याद करके बड़ा अनूठा और डर या फिर यूँ कहूँ शर्मिंदगी से भरा दौर भी याद आ जाता है। पहाड़ों में साधन की कमी तो सदियों से चली आ रही दास्तान है, इसी में एक दौर जिसे उकेर पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल वो दौर था। बात शुरू करता हूँ मैं 91 में पैदा हुआ यानि ऐसे परिवर्तन वाले दौर में जहाँ दुनिया वैश्वीकरण की ओर थी और हम बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते थे। स्थिति बताने के लिए शायद इतना काफी होगा कि मैं 7वीं में पढ़ता था तब खाकी स्कूल ड्रेस की एकमात्र पेंट थी मेरे पास और अंडरवीयर की तो बात ही क्या करनी। एकमात्र पैंट वही घर में और वही स्कूल में पहनने को मजबूर अक्सर गन्दी हो जाने पर शाम के समय धोता था और अन्य एक पजामा जैसा था भी तो पिछवाड़े में दो बड़े चश्में जैसे टाँके लगे हुए थे जिसे पहनने में शर्मिंदगी अलग थी। ये तो छोड़िए मात्र ₹ 2 उस दौर में स्कूल फीस होती थी वो भी हमेशा लेट हो जाती थी अब हँसी भी आती सोचकर और ये सोचकर थोड़ा सहम सा भी जाता हूँ कि पिताजी भाई ये लोगों के लिए कितना मुश्किल दौर रहा होगा वो। खैर उस और न जाते हुए टॉपिक में आता हूँ। इस दौर में बिजली थी नहीं एक-दो ल...

भोले के घर से

ना किसी के डर से, ना किसी के भर से, ना डरूँ कहर से, ना थरहर से, नाता मेरा तमहर से, आता हूँ छोटे नगर से। परिचय मेरा स्वर से, ना बड़े घर से, ना फेमस शहर से, मैं तो आता हूँ देखो, सीधे भोले के घर से-भोले के घर से। हिमाल भोले का घर है, हिमाल ही पीहर है, हिमाल ही धरोहर है, हिमाल ही जवाहर है, हिमाल ही मनोहर है, हिमाल ही मुहर है, मेरे स्वरों का स्वर है। भोले की मेहर है भोले ही नहर है, भोले ही सहर है, भोले ही तमहर है, भोले ही भूत हर है, भोले ही ठहर है, भोले ही महर  है, भोले पीड़ा हर है, धड़ का मेरे वो सर है।

आओ एक उजियारा लिखते है

आओ एक उजियारा लिखते है, अंधेरों की बसावट में एक सवेरा लिखते है, थक गए है मेहनत कर,  सुनो कब तक यूँही बैठे रहोगे, चलो सफर को थामकर कुछ प्यारा लिखते है, आओ मिलकर एक उजियारा लिखते है। भले धूप बहुत है इस सफर में सुनों, रोशनी चुरा कर चलो सफर रात का करते है, कुछ बवंडर आते है, आते रहेंगे डगर में, चलो बदलाव  बिन बात का करते है,  हर तीज की तरह आ जाता है अंधियारा,  क्यों न इसे ममेरा-फुफेरा लिखते है, आओ एक उजियारा लिखते है।

अंश 10 माह

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सवालिया निगाहें,  जिज्ञासु हरकतें,  तुमसे ही है जीवन की सारी बरकतें। 10 माह के हो गए हो तुम मेरे बेटे,  तुम पर बस अपना बचपन जी रहा हूँ, अजीब झुरझुरी होने लगती है सोचता हूँ,  मैं तुमसा रहा होऊंगा तो मेरी जिज्ञासाओं में शायद ये सब न था जो तुम्हारे पास है। मात्र इन 10 माह में तुमने हवाई यात्रा के अलावा सभी चीजों की सैर कर ली है और बेटा मैं अब तक इन सबके लिए असहज हूँ।  ये 10 माह कैसे बीते बेटा पता नहीं पर इतना कहूँगा कि मैं तुम्हारे साथ पूरा अपना बचपन जियूँगा और तुम्हें तुम्हारे को बचपन जीने की सारी स्वतन्त्रताएँ दूंगा। हालाँकि ये स्वतन्त्रता मेरे बचपन से कम ही होगी बेटा क्योंकि तू मेरे बचपन के गाँव में नहीं मेरे जवानी के शहर में है।
अन् यारी  रात मा,  बारा मा जलको बत्ती जस्तो उम्मीद चाइंछ, यस बेकार दिन भये को  निखुट हुँदा पछि फ त्तु र चलछ, यो जमाना कस विचित्रय  ठाउँ हो भन्दा, राम्रो आपन जन्म को  ठाउँ लाग्छ। ढेरै माया गर्दा पनि  आँखामा लगाउने गाजल के घाव लाग्छ।

चुप्पी

नहीं मैं ऐसा नहीं कि अक्सर खामोश हो जाऊँ और खामोशी लिए रहूँ देर तक।  घर जहाँ मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ सीख ली दुनिया भर की, मैं यहाँ बैठकर बस यही सोचता हूँ कि मैं यही हूँ या फिर वो हूँ जो दुनिया के सम्मुख हूँ, हँसता हुआ, समझदार, हल्का, वजनी, नासमझ, सोचता, विचार करता।  सवाल बहुत है पर आज फिरसे वही अजीब सी शांति पसरी हुई है मेरे जेहन में, मेरे आस-पास सब जगह। मैं चुप हूँ, चुप्पी लिए हुए हूँ। कारण नहीं है कुछ भी आँखे जरा नम है। उन अंधेरों में जिनसे अक्सर मैं डर जाया करता था आज उन्ही अंधेरों में खामोश बैठा हूँ, एक बुत की तरह, बिल्कुल बुत की।तरह। आज सालों पहले का अकेलापन फिरसे डरा रहा है मुझे मैं अकेला हूँ या फिर दुनिया में खोकर मैंने जरा सा भुला दिया खुद को और मैं यही हूँ जो अभी हूँ? ये सवाल हमेशा सवाल ही रहेगा क्योंकि मैं फिरसे दुनिया की भीड़ में सम्मिलित होने को कुछ रोज बाद जाऊँगा और फिर उसी दुनिया का हो जाऊँगा।  ना ये शांति होगी कहीं पसरी हुई ना मैं चुप रहूंगा, चुप्पी मुझे शायद जँचती ही नहीं है। हैं ना अजब चुप्पी।
असंख्य लोगों में एक चेहरा होना, चेहरे में असंख्य होना दोनों पृथक है,  ठीक वैसे ही जैसे मालगाड़ी में असंख्य पेटियां और पेटी में असंख्य डब्बों का होना।
असंख्य लोगों में एक चेहरा होना, चेहरे में असंख्य होना दोनों पृथक है,  ठीक वैसे ही जैसे मालगाड़ी में असंख्य पेटियां और पेटी में असंख्य डब्बों का होना।
खैनी की तरह रगड़ खाती जिंदगी में सुकून इस चीज का है कि रगड़ने वाले तो इसका मज़ा ले पाते हैं।
किताब बना डाली है, गलतियां बताकर, उस शख्स का रूप, रुख, रूह सब निखर के सामने है, कुछ दूरियां पाई है, नजदीकियां बढ़ाकर।

ज़िंदगी

सोचा था अपनी ज़िंदगी खर्च कर मुनाफा कमाऊँगा, इस मुनाफ़े से कई घर रोशन करूँगा, पर जिंदगी तो बड़ी छोटी निकली, अब सोचता हूँ, इसे खर्च करूँ कि सवारूँ।

अतीत के फैसले

लेते रहे फैसले बेतुके, बढ़ते रहे फासले बेतुके, हम ढांकते रहे, वो गलतियां दोहराये तिहराये, हमें सुकूँ न रहा, उन्हें जुनूँ न रहा, भारी पड़ते रहे, पर हम लेते रहे, बड़े दुख भरे से दिखे, पीछे जो देखा, बड़े बोझिले से दिखे मुझे अतीत के फैसले।

ईजा कैसी थी मेरी

कोई पूछ बैठा ईजा कैसी थी मेरी. स्वच्छंद थी, गम्भीर थी विलक्षण थी, निर्दिष्ट थी श्लाघ्य थी, दारुण थी रौद्र थी, संचित थी पथिक थी, प्राचीर थी विरक्त थी, पुलकित थी किंकर्तव्यविमूढ़‌ थी, विस्मित थी, अलौकिक थी, महि थी, मेरी अँखिया थी, अंकोर थी, इष्टतम थी, उर्मिला थी।

शब्दों चलो

शब्दों चलो जाओ दूर जंगल में, अंतिम छोर में गाँव के, जहाँ रात होते ही सन्नाटा काटने दौड़ता है, उसी सन्नाटे की सह में आशियाँ बनाते है। शब्दों चलो जाओ दूर सहर के, साँझ की गोद में, जहाँ उजियारा भी दम तोड़ देता है, उसी गोद में सर रखकर कुछ गुनगुनाते है। शब्दों सुनों लौट चलो उस कलम में, लहू बनकर उतरते हो जहाँ तुम, जहाँ राग-ताल बिना जहाँ नाचना होता है, उसी लहू के कतरों को बताना है, उनसे कहना दुःखी हूँ मैं,  पता नहीं क्यों, कोई वाजिब कारण तक नहीं है।

शोर

कितना अहम होता है ये शोर जो नहीं सुना जाता, कितना बेदर्द होता है ये चोर जो नहीं चुरा जाता, कितना मजबूर होता है ये छोर जो नहीं मिला जाता। तन्हाई अक्सर आँसू बनकर बह जाती है मेरी, ख़ामोखा के लोगों का होना, तन्हाई नहीं मिटा जाता। अक्सर दम्भ करते हो जिनके होने का तुम, क्या हक़ीक़त में वो साथ नहीं छुड़ा जाता...       ये जो कोलाहल मचा है भीतर तुम्हारे सुनों, कितना अहम होता है ये शोर जो नहीं सुना जाता।

ज़िंदगी

सुनो! बड़ी बेरहम है जिंदगी, जी नहीं सके दो पल तो वहम है जिंदगी। समेट लिए हो कुछ सुकूँ के पल तो अच्छा वरना, दर्द-ए-पैहम है जिंदगी। किसी का होना जब दुःख से सरोबार कर दे तो,  सुनो!  किसी का न होना, मरहम है जिंदगी। किसी हँसी-ठिठोली में रहकर भी कमी रह जाये कहीं तो सुनो! निडर होना भी कभी सहम है जिंदगी।

करने वाले

इश्क़-मुश्क सब करने वाले, अनेकों का जीवन जीने वाले, सुन बाँट के जा ये जोड़ मन का,  ऐ! एक को अनेक करने वाले।           दर्द की दवा दे जा,  ऐ! खुश्क को जरिश्क करने वाले।  कुछ लिख दे, और मोह छुड़ा दे,     कलम का हथियार चलाने वाले।  हरी-भरी दुनिया न जीने वाले,  हसीं जहाँ का गर्क कर चलने वाले,    समतल को सर्क करने वाले,     तल्ख को बर्क करने वाले।

परीक्षाएं

सुनो परीक्षाएं होंगी, होते रहेंगी। एक से तुम्हारा अंत नहीं हो सकता, एक से बस शुरुआत होती है। कइयों से तुम्हरा अंत नहीं हो सकता, क्या एक पत्थर से घर बनता है भला.? जाने कितने ही पत्थर केवल नींव में डाल देते हैं जो दिखते भी नहीं। ऐसे ही बहुत सी परीक्षाएं दे दिया अब नहीं होगा का ख्याल निकाल फेंको। चलो अभी घर नहीं बना तुम्हारा,  मात्र मकान की छत डलनी रह गई हो शायद, इसलिए एक और बार उठो और बहुत सी परीक्षाओं को देने का साहस अपने अंदर भरो। शायद इनमें से कोई एक परीक्षा आपके लिए छत बने।