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Showing posts from 2021

बरी

लड़खड़ाई आवाज़, मय में जरा सा डूबा था स्वर, उसने जो कहा  एक योजनावधि का बोझ एक पल में छूमंतर हो गया। मैं जिस अपराधबोध से जूझता आ रहा था इतने बरस, एक मयशीन आवाज़ ने मुझे बरी कर दिया। मैं खुश भी था, और कुछ अन्तस् में दुःख भी था, जो भी हो मैं कभी न किये गए अपराध से, कल रात बरी हो गया।

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बस कभी सोचता हूँ कि किसी का तुम सा न होना, तुम सा न सोचना, बेवकूफी नहीं हो सकती।          हां ये है कि तुम्हारी बात से हम इत्तेफाक रखते हैं। पर हमेशा कोसना और कोसते चले जाना, किसी आइए विषय पर जिसे आप पसन्द नहीं करते। शायद अच्छा नहीं।

पुराना दिन

एक पुराना दिन,  पुराना ही घर, इजा-बाबू, मैं मुझे कहीं निकलना है, आने के समय बाबु बाहर बैठे है, इजा अंदर है, मैं तैयार होकर मिलने गया, इजा ने जा लाटा जा कहते हुए 1-1 के दो सिक्के दिए, और कहा मेरे पास यही है, मैं इजा को देखा वो रो रही है, मैं भी लिपट के रो पड़ा, मैं इजा को बोला इजा चल मेरे साथ वो तैयार न हुई,  और मैं जबरन उसे उठाकर ले आया बाहर से बाबू को भी ले आया अपने साथ,  रिक्शे से किसी वाहन में बिठाया, सामान लिया और चल पड़ा। जाना कहाँ था नहीं मालूम, बड़ा अजीब सपना था, इजा आज भी रो रही थी, मैं उससे लिपट कर रो पड़ा था। सपनों के भी मायने होते होंगे, शायद मैं मूरख अब तक नहीं समझ पाया।

फाम

वो नहीं बस उसकी फाम ही आती है, कुछ नहीं उससे मेरा तार्रुफ़ अकाम ही आती है, हां पर कई दफ़े भूल जाता हूँ कई दफ़े फाम ही आती है, पहले पहल डीठ थी सिर्फ,  अब तो डीठ कम फाम ही आती है।  कुछ शनै-शनै सा था आना, सुनो अब धड़ाम ही आती है। वो नहीं बस उसकी फाम ही आती है।

अजनबी

बुना हुआ मार्ग था आने का उनका, उन्हें कैसे अजगबी कह दूँ? कुछ संगीन से थे रिश्ते उनसे, उन्हें कैसे अजनबी कह दूँ.? कुलीन थे वो कहना ही होगा, आज बिछड़ने पर कैसे भला कुनबी कह दूँ.? एक बात, मुलाकात की दरकार रही जिनसे कैसे उन्हें अजनबी कह दूँ.?
किन जवाबों से बनाऊं ये संसार अपना, यहाँ हर जवाब अलग, सवाल एक सा क्यूँ है.? दहिया कहूँ कि दूधिया हिमालय सफेद चहुं ओर, सफेदपोशी करनी ही थी तो फिर कर लेते भगवान जहाँ को सफेद, ये नीला आसमां, धरती हरी क्यूँ है.? बिछड़ने वाले को नहीं देखता मैं अक्सर पर, तेरे जाने के बाद ये फाम सी क्यूँ है.?
न ख्वाब याद रहा, न शहर ख्वाबों का रहा कहीं, फाम ही नहीं रही जब तब डीठ कैसे होगी सही.. 

अंतर

हम हार की मिशाल और तुम किसी यूप की तरह              जाड़े की नरम धूप की तरह,              अनाथों में पितृरूप की तरह,              हम भू और तुम भूप की तरह।
बस कह देना आसान होता है, निभाना मुश्किल इसे, जीवन है जाना, फिसलन होना आम है इस सफर में, बिगाड़ देना आसान होता है उसे, होता है बनाना मुश्किल जिसे।

भा. ति. सी. पु.

उत्तर में महान हिमाल है, उसमें हिमवीरों का कमाल है,    दृढ़ कर्म निष्ठता का सवाल है, शौर्यता की ढाल है,       बर्फ पड़ी निढाल है, उसमें चीते सी चाल है। घर परिवार को रख किनारे, शीत में कटता पूरा साल है।    देश के लिए हीर है तो हम ही रांझे की तस्वीर है। शीत ही नदियां, शीत ही घर, शीत ही रहता नीर है, सीमा पर डटे रहते हमेशा भा.ति.सी.पु. के वीर है,     आपदा के महावीर है, फौलादी शरीर है,  पर्वत को देते चीर है, सीमा सुरक्षा की नजीर है,    बर्फ के राहगीर है, गर्म हमारी तासीर है।   कभी अधीर शौर्य है, कभी धैर्य की अजमाइश है, मुखिया अब तक पैंतीस हुए है, बासठ की पैदाइश है।        अशांति में अधीर है, शांति में कबीर है,   सीमा पर डटे रहते हमेशा हिमवीर है, हिमवीर है।

"सुभ"+"अंश" सुभांश

आज 11वां दिन तुम्हें अब तक उकेर भी नहीं पाया हूँ तुम्हें बेटा! सुनो अंश जब तुम बड़े होओगे तो पढ़ना कितना नासमझ, बेतरतीब बाप है तेरा। बेटा थोड़ी देर में नामकरण होना है अब तुम सांसारिक संस्कारों का हिस्सा बन चले हो बेटा, अब तुम्हें बस इसी पाश में बंधे रहना है।  बेटा तेरा दुनिया मैं आना बड़ा अप्रत्याशित था, दिन 8 सितंबर, मेरी इजा की पुण्यतिथि के 4 दिन बाद।  तेरी इजा को सुबह फोन किया तो उदासी थी उसके लहजे में पूछने पर बताया कि हल्का दर्द है। मैंने यूँही कह दिया डॉ. के पास चले जाओ। दिन तक मानी नहीं दर्द भी हल्का था पर दिन के बाद वो चले ही गई आखिर डॉ. के पास वहाँ पहुंचकर उसने फोन किया और कहा कि स्थिति थोड़ी अजीब है डॉ कह रही है गर्भ में तेरे संरक्षण को जो पानी था वो रिस गया है और तुरंत ऑपरेशन करना पड़ेगा। तेरी इजा बेटा बहुत साहसी है तेरे बाप सी डरपोक नहीं, उसके ये कहने पर मैं अपने ऑफ्फिस में था और मैं हड़बड़ा कर रह गया। मैं तुरंत घर को निकला कपड़े पैक किये और चल दिया तेरी इजा की तरफ। मेरा दिमाग सुन्न हो चला था अक्सर हो जाता है ऐसे मामलों में। कुछ सूझ नहीं रहा था शाम के 5 बजने को थे और तुम आन...

09 साल

               फिर आता है ये दिन मुझे कटोचने, मेरी सफर की शून्यता बटोरने,                मेरे जेहन के चिथड़े समेटने।
शहर कैसा लगा? लोग कैसे लगे.? छोड़ गए थे जिन्हें अगवानी को आये वो लोग कैसे लगे.? शहर की वो गली कैसी लगी ? गली के लोग कैसे लगे.? कुछ जाने-पहचाने से अजनबी लोग कैसे लगे.?
   रोशनी रास नहीं आ रही सहर की अब,      ख्वाब तो रंगीन ही हैं रोज की तरह,     आबो हवा बदल गई है शहर की अब। कुछ पहचानी सी चल रही है हवा सब पहर की अब,   मुखातिब होगा जाने वो शख्स किस दोपहर अब....

मेरी वर्णमाला

अ से अनार आ से आम वर्णमाला के इस रूप रंग से परिचित लोगों के लिए मेरी ओर से एक नई वर्णमाला, जो पग-पग पर बदलती रहती है, समय-समय पर बदलती रहती है इसके विविध रंगों और रूपों को पिरोना और फिर उसे वर्णमाला के रूप में बुनकर साज-सज्जा देकर रंगना शायद बेहतर विकल्प हो सकता था फिर भी इसे रंगना एक बेहतर विकल्प है। अ से अखबार कहूँ, नित का आ से कहूं आतंक, हित का इ से कहूँ  इबारत कहूँ, ई से कहूं ईशान, राष्ट्र का उ से कहूँ उत्तर, भ्रष्ट का ऊ से मैं ऊखल रहन दूँ,  ऋ से ऋग्वेद लिख डालूं। ए से बस मैं एक हो जाऊं, ऐ से ऐरा-गैरा बन जाऊं, ओ से ओढ़ लूँ हया को, औ से औरत बनने दूँ। अंक से अंकगणित बन जाऊं, अ: को मैं पुनः बनाऊं। इन स्वरों को पुनः रचाऊं। क से कला बनूँ कलाकार की, ख से खड़ाऊँ बन जाऊं, ग से गगन बनूँ असीमित, घ से घर को घर रहने दूँ। ङ को भी न छोड़ूँ खाली, बनाऊं इसे भी सवाली। च से चल पडूँ सफर में, छ से छप जाऊं जगत में, ज से जहान को कर दूं एक। झ से झरना बन जाऊं ञ को बहाकर आगे ले जाऊं
    जस असौजक काम आईजां, कबे-कबार तेरी उसी फाम आईजां। आफतकी बख्त जस मुखमे राम आईजां,       मेर मुखमे तेर नाम आईजां.

फाम

सोचा धुँधला गया पर, तरेर रहा है जेहन में वो नाम,                  एक कदम आगे बढ़ चलो जरा, तो, लौट आती है बीतें चार दिनों की फाम..।

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कलम में स्याही नहीं लहू भर गया है, आते-जाते सरे राह टोकता नहीं कोई यूँ लगता है मेरे अंदर का वो मर गया है। कुछ रौनक सी कुछ चहल-पहल सी लौटी है, लगता है, जाते-जाते वीराने को आबाद कर गया है। शुष्क है बाहर का मौसम पर भीग गया हूँ, यूँ लगता है भीतर कोई बरस कर गया है।

साला दोस्त-2

दिन बीते, महीने बीते और फिर साल बीते, मैं सोचता हूँ! कि क्या जोड़े रखा हमें इतने समय जबकि मैं साधारण सा बस डरपोक सा और वो हर नई जगह सर्वाइव और शासन करने का साहस रखने वाला व्यक्ति कितने विपरीत हैं हम। मेरे कई सारे राजों को सीने में दफन करने वाला वो शख्स सच में हक़ योगी सा लगता है। पीछे मुड़ता हूँ तो कभी-कभी मुझे लगता है जैसे वो गोद लिया गया हो उसके माँ-बाप कहीं सौतेले न हों। (आश्चर्य एक बार तो पूछ भी लिया था मैंने) ये ख्याल अक्सर तब आता है जब उसका विचार और संघर्ष जो शायद नहीं होने थे साफ-साफ दूर से ही दिखने लगते हैं। बारहवीं करने के बाद कोई बड़ा तो नहीं हो जाता पर मुझे लगता है वो हो गया था। उसकी जिद थी या उसका एकहड़ियापन था कि उसने बस इसी को सार बना लिया था ये उसका बल था कि निर्बलता इस पर मैंने कभी विचार नहीं किया। बारहवीं के बाद उसने अपने हाथों में अपनी जिम्मेदारी ले ली थी जो उसके लिए कब ताकत से कमज़ोरी बन गई कोई जवाब नहीं है इसका। बात शुरुआती मुलाकात से बहुत आगे निकल गई थी मैं अक्सर चर्चाओं में अपनी बातें रख देता था पर उसने कभी अपने बारे में अधिक विस्तार से विवरण पेश नहीं किया। बादलों से घि...

फसल

उदासी अच्छी ना सही पर, हर उदासी बुरी नहीं होती, बीज लाख बो ले किसान लेकिन, हर फसल पूरी नहीं होती.

नींद में खलल

             नींद में खलल है फिर,               हृदय हुआ है अस्थिर। ये मिज़ाज़ है मौसम का या कोई लम्हा रोया है,               कराह है चारों तरफ,                   दुख रहा है तिर।      मेहमाँ भी मेजबान बन बैठे है आशियाने में, उड़ जाने वाला पँछी कहीं सुदूर देशों में, बैठा है अब चिर। नींद में खलल है फिर.....

जनम बार

इस बार भी लिख कर दफन कर दिया है पहले की तरह, बस दुआ है जिंदगी खूबसूरत बीते, न बीते पहले की तरह

छवि

Image
सोचता हूँ कैसी होगी... मेरे हिस्से की छवि.? क्या तुमसी होगी... सोचता हूं होगा मुझसा फिकर मंद, खौफ़जदा... या फिर बेफिकर लिखने वाली कलम की तरह.?

दिन

एक वो थे बेफिक्री की रवानगी थी, फिर एक वो आये जब चीजें न थी पर कल्पना संसार था, फिर एक वो आये जब अभाव मालूम हुए, फिर एक वो आये जब अभावों के घेरे से सशंकित हुए, फिर एक वो आये जब कल्पनाएं डराने लगी, फिर एक वो आये जब डर हावी होने लगा, फिर एक वो आये जब दर्द ने इंतेहा तक सताया, फिर एक वो आये जब संघर्ष में गुत्थमगुत्था हुए, फिर एक वो आये जब अंधेरा छँटा, उजाले ने साथ दिया, फिर एक वो आये जब उजाले में अकेला रह गया, फिर एक वो आये जब सिलसिले शुरू हुए जुड़ने के, फिर एक वो आये जब सब छँट कर रह गए, फिर एक वो आये जब सारी टहनियां कट गई एक सिरा रह गया, फिर ये दिन हैं अब भी अकेलेपन की शीशियाँ टूटती हैं तरल बहता है, बस सुरमा नहीं बहता आंखों की कालिख़ आँखों में ही रहती हैं। ये दिन हैं जब तब और अब

कलम सवाली

राहत पूछते नहीं जुबां से हमारे साहब, कलम जब देखो हमेशा सवाली होती है। दौर बहुत लम्बा नहीं था बस यूँ लगता है! एक लम्बी सी किताब थी जिंदगी, पहले से उसने पूरी पढ़ डाली होती है। हर जगह गर्त ही गर्त, पहाड़ ही पहाड़ दिखते है मुझे, न कोई दिल मिलता है इधर, न कोई जगह खाली होती है। कलम उसकी अब भी हमेशा सवाली होती है।

😊

तुम हर नाम मे हो जो भी नाम लूं अपना समझ लेना, तुम हर ख्वाब में हो, जभी सपना कहूँ तुम अपना समझ लेना।

तुम.

सर्द हवा हो जाना जनवरी हो तुम, धीमी सी सही मगर सुरूर में जो आये माह-ए-मुहब्बत फरवरी हो तुम। मार्च का बसन्त हो, अप्रैल की फसल हो, हासिल सारा सूद है, जीवन का तुम असल हो। मई-जून की लू जैसी तुम, कभी नयनों का सावन-भादो हो, जीवन मेरा सूखी भूमि, तुम जुलाई-अगस्त सी कादो हो। सितंबर जैसी बरसाती अंत सा, अक्टूबर-नबम्बर सी पसरी शांति तुम। पके खेत सा शांत खड़ा मैं, उसका तुम रक्षण बाड़ा हो, जीवन के अंत का जाना, दिसंबर जैसा तुम जाड़ा हो।
जो सरे राह पूज लिए जाते हैं उनके मन्दिर-मस्जिद नहीं होते, पीर तो मोमिनों में होते है ख़्वाब, काफिरों के मुर्शिद नहीं होते...

कौल-ए-कलम

  कौल-ए-कलम कल्ब से उतरता नहीं, वाकया शब्दों के मिलन का बिसर गये हैं।

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कभी याद भर कर लूँ तो बस रोना होता है, सही है, होता वही है जो बस होना होता है। सोचता हूँ पीतल का रंग भी कुछ ऐसा ही था, धारणा ही गलत थी कि सुनहरा बस सोना होता है। पाने को जहाँ में सब तो है मगर,  किसने कहा था क्या कुछ खोना होता है. तकदीरे-उत्फ़ में यकीनी तो नहीं हुई मगर, अब लगता है होता वही है जो बस होना होता है।

छवि

चंद दिनों का गांव

कद नभ सा हिमालय सी छांव, ख्वाहिशें आजीवन की हैं पर, नहीं ठहरते कुछ पल पांव, हाँ अब रह गया चंद दिनों का गांव.। मैं विचरता आवारा सा, वो ठहरा घोसले सा ठाँव, सरल, सौम्य उजले पानी सा, हाँ रह गया चंद दिनों का गांव। ज्यूँ शहर सा बड़ा होता जाता, जुड़ता जाता मुझसे गांव, जितना फैलूँ जकड़ता जाता, ये जैसे शिशु का आंव, हाँ देखो रह गया है चंद दिनों का गांव। कभी जूझता जुड़ने जाता, वापसी को असफल सारे दांव, अब तो बस रहा गया है चंद दिनों का गांव।।
तुझे देखे बीत गए है बरस जैसे, एक तस्बीर ही मुहैय्या करा दे खुदा, दर्शन को गए तरस जैसे। अबके बरस जाने कैसे दिखते होंगे, कुछ होगा भी? उनमें बीते बरस जैसे।