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Showing posts from 2019

सपनों की कब्रगाह-: नौकरी

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तीन साल नौकरी के हो गए आज, सपनों के पेड़ बालमन से ही गहन जड़े जमाये हुए थे, जो कभी नाउम्मीदी के भयकंर दौर से गुजरे तो कभी उम्मीदों के चरमोत्कर्ष से। बड़ा गहरा दर्द सा जमा महसूस हो रहा है, कहने को पाया-खोया बहुत कुछ यहाँ आकर आंकलन करने का मन था तो लिखने बैठ गया। आज ही के दिन तीन वर्ष पूर्व सरकार की नौकरी करने को देहरादून शहर में प्रविष्ट हुआ था। नौकरी से वैसे तो पुराना नाता रहा है, प्रथम बार 12वीं करने के बाद  प्रयास शुरू कर दिया था। नौकरी का पहला अवसर सेवायोजन कार्यालय द्वारा आयोजित रोजगार मेले के माध्यम से चयनित होकर एक सुरक्षा कम्पनी में चयन से मिला। चयन होने की थोड़ी-बहुत खुशी थी। BPL श्रेणी के अंतर्गत होने से फ्री ट्रेनिंग हेतु इसी शहर देहरादून का रूख हुआ। साल था 2009 जब 12वीं बस उत्तीर्ण ही कि थी, सेलाकुइं के निकट कहीं राजावाला के जंगल मे था वो ट्रेनिंग सेंटर जहाँ से मात्र 4 दिनों में ही मात्र 6000₹ जमा न कर सकने के कारण निष्काषित कर दिए गए थे। सपने टूटने का अनुभव तो बचपन से ही था, फिर भी रुआंसा सा मन लेकर वापसी की ओर रूख किया। जेब में टिकट के बराबर ही मात्र ₹ ...

आज मैं बेगार लिखता हूँ।

संघर्षों की लहरें नहीं, शांति का कगार लिखता हूँ, चमचमाते शहर नहीं, अंधकार का पहाड़ लिखता हूँ, ताजा समाचार नहीं, रात्रि छप जाने वाला अखबार लिखता हूँ, सपनों की कब्र पर महिनान्त म...

साला दोस्त

बात उन दिनों की है जब हम दुनिया की सैर किया करते थे, अलग-अलग देशों के नाम अपने अनुसार रख लिया करते थे। उस शाम एक अलग रूप देखने को मिला उसका जब हम अफ्रीकी देशों में घूमते हुए नया ब...

तो क्या....बुरा किया ?

"सुमन" की चाह में मैंने कंटकों से दूरी बना डाली         तो क्या.........बुरा किया??? अंधेरों की हुक़ूमत छीन कर सुबह बना डाली       तो क्या.......बुरा किया??? मैं ना कहता था कि एक दिन "सुमन" से सुरभ...

एक और साल बीता

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एक और खुशनुमा साल, बीता तेरे बगैर, खुशफ़हमियां सारी ख़त में लिखी मिलेंगी पढ़ लेना, पढ़ना न आये अब तक भी तो पढ़वाकर कर सुन लेना, सिरोलों की महक़, पिनालु उबले, पा लेता हूँ देख लेना, पांव के छाले, खड़ी चढ़ाई की थकन, जला हुआ खाना भी खा लेता हूँ देख लेना. शाम की तन्हाई, ठंडी-ठंडी छांई, मर जाने की दुहाई कभी दोहराता हूँ सुन लेना, फिर रात भर जगकर देखा है तेरे दर्द को, जरा सी आँख लगी तो मर जाऊँ देख लेना, कुछ रिश्तों की खाइयाँ अब तक वैसी है, तेरे जाने से क्या हुआ, हो सके तो आकर भर देना, अगली दफे खुदा इंसाफ करना, दुनिया छीन लेना पूरी, मां को मेरे हिस्से कर देना... 04 सितम्बर, 2012  

वो...

मेरी कलम थामकर लिखता है, बेशकीमत है फिर भी बिकता है, नासमझ तो जरा भी नहीं असरार जानता है, जाने पर उसे सूरज में भी चाँद दिखता है...! लिखने को सीरसागर भरा पड़ा है उसकी स्याह में, मग़र....! व...

"टीस"

वो शख्श मुझे कहीं और का रुख़ करने ही नहीं देता,,          जब भी सोचा कि अब कुछ दूरियाँ इख़्तियार कर लूँ .........तब  कुछ यूँ हो जाता है कि वो पगफेरे की सी रस्म अदा करने आ ही जाता है,,,,,,वापस मेर...
न चलने में रौनक रही, न बैठे रहने में सुकून कहीं, ए ठिठुरन लौट आ जीवन में मेरे, देखना जान न लेले ये जून कहीं, बस्तियां सींचने को पानी मांगते है वो, और हम यूँही बिखेरते है खून कहीं, य...
एक अंधेरे को सिया है उजाले में बैठे, तुम चाँद-तारों की बहुत कहते हो, सुनो साहब, मैंने कल ब्रह्माण्ड की सैर की है घर में लेटे.! उजाले तो मिले नहीं मिलेंगे कैसे, अंधेरा जो सिया था तो उजाले बिखेरेंगे कैसे.? उनसे कह दो हम तैयार हुए बैठे है, ये न कहना कि पेट भरके लेटे है, अभी तो पथ के कंकड़ ही हटाये थे बहुत, सुना कि दस्ते पूरे पत्थरों को लिए बैठे है, कल तक जो सोया था उस बीहड़ में देखो, सुना है मेरे गाँव का वो आदमी जागने लगा है, अरे सुनो कभी हमारी याद आये तो कहना, कहीं भूल न जाओ कि हम भी इसी गाँव के बेटे हैं..!

बचपना

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आवाज़ आती थी चीखने की, कोई कह रहा था शैतान है, सुनो, आज फिर दोपहरी हैरान है, न पूछो उदासी का सबब साहेब, हमने भी पाई है जवानी बचपन खोकर, यूँ तो खुशनुमा ही देखा है चेहरा उसका, वो रह-रह के रोया करता है खिलौना तोड़कर...!

ईजा कहाँ से लाऊंगा

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थक सा गया हूँ साहब कितना चलूंगा..? सामर्थ्य खत्म हुआ अब, मैं अजा कहाँ से लाऊंगा..? थक-हार मां की गोदी में सिर रख देते होंगे न तुम साहब, गोद किराए की मिले भी अब, मैं ईजा कहाँ से लाऊंगा..? लम्बा सफर है जीवन का ज्योतिष कह गया था मुझे, अगर चाहूं तो भी कजा कहाँ से लाऊंगा..? सब हैं साहब यहाँ, पर मैं ईजा कहाँ से लाऊंगा...?

एक कमीज वाला-2

आज फिर देखा मैंने वो लड़का ............................. हाँ.......!   वही "एक कमीज वाला"...      उसका बचपन बड़ा अजीब था..."ना कागज की कश्ती थी ना बारिश का पानी, था तो एक अभाव में पनपा शरीर और एक अनसुलझा धागा इस दौर-ए-ज़...

"बैशाखी पौधा"

....      भादो मास के थपेड़ों को सहकर भी उसने हिम्मत की थी एक बीज को बो कर उसे परवरिश देने की,, अपनी बंजर हो चुकी ज़मीन पर दस साल बाद ये बीज कहीं बोया ,,, मालूम उसे भी नहीं था कि ज़मीन फिर से ...

"बचपन का शौक"

        कई दफ़ा सोचा कि मैं भी इस गोल-गोल से घूमने वाले चरखे में बैठूँ.......वो वक़्त जो था वो बचपन था , ज़िस्म के बाजू में छुपा छुटमुट सा बचपना भी कहीं समेट रखा था,,,        मेलों में जाकर ब...

बरी

महज़ दो गज चले थे कि , उन्हें भारी सा लगने लगा, कुछ अतीत ने बांधा उन्हें, कुछ समय ने प्रभाव में लिया, उनके शब्द उनकी हुकूमत, उनकी ही किलेबंदी है, कोई जाकर बतला दो कि, आज़ाद थे वो आज़ाद ...

शौक

एक टुकड़ा लकड़ी उठाकर,           एक कश्ती बनाने निकले थे हम, एक छोर नदी का पकड़कर,           अतीते-गम डुबाने निकले थे हम, टांका जोड़ा, कील लगाई, मुश्किल से कश्ती बनाई,              डू...

भिखारी ठहरे हम...

जी रहे हैं बड़ी मृदुलता से,             भीख से मिला जीवन, निर्मित पूर्ण कोमलता से,             दारिद्र अपना मन..! अपनापन देख पाती नहीं,                 हुई नज़रे अंधकारी, कहाँ सम्भ...

करूँ कैसे

सुबह उठकर जातरा(हथ चक्की) चलाना, जौ-मंडुवा पीसकर रोटी बनाना, फिर दूध निकालना, मट्ठा बनाना, चढ़ती हुई धूप और अपने कामों से निवृत होकर जंगल/घास/लड़की लेने जाती दुनिया को देखकर हड़ब...

करूँ कैसे

सुबह उठकर जातरा(हथ चक्की) चलाना, जौ-मंडुवा पीसकर रोटी बनाना, फिर दूध निकालना, मट्ठा बनाना, चढ़ती हुई धूप और अपने कामों से निवृत होकर जंगल/घास/लड़की लेने जाती दुनिया को देखकर हड़ब...

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बहुत लम्हों को लिए गर्व किये, अकेले रहना था खुद ही लम्हात सर्व किये, गमों की पोटली कसकर रख दी, उनके लिए हर दिन पर्व किये. मुखातिब होते रहे अंधेरे से हम, मगर उनके ख़ुशी के हर ठिये र...
रोना रोज रोते रहे तुमसे दूर होने का, गुफ्तगूं बहुत किये, के मिलन हो वर्षों बाद मुखातिब हुए तो मालूम पड़ा, तुम तो तुम ही थे हम ही हम न रहे
खफा यूँ नहीं हुए कि मोहोब्बत कम हुई, हृदय बोझिल बहुत था आंखें जरा सी नम हुई, परिवर्तन-ए-हाल कुछ तो हुआ होगा न यारा, छरहरी काया यूँही थोड़े न शिकम हुई.
लो कुछ फासले तो कम हुए कि पौ फट गई अब, खूब जिम्में से पाला पाँच बच्चों को जिसने, बारी मां की आई तो कुछ हिस्सों में बंट गई अब.

उद्दीपन

वही शाम, वही समय, वही हसरत मेरी' क्या कोई इंतज़ार में होगा.? उमड़-घुमड़ करते बदरा , गति लिए भागने को है' क्या उन्हें भी कहीं जाना होगा.? अनायास जो कदम बढ़ने थे, वो मुड़ गए आशियाँ को मेरे' क्या आज भी वो सोपान में बैठा होगा.? घर तो नहीं किराए का मकाँ है मेरा वहाँ' क्या उस मकाँ में न जाने से कोई हलचल हुई होगी.? वो तस्वीरों सी नज़र वो मुस्कान उसकी ' क्या आज भी मायूस हुई होगी.? चलो ये पंछी तो उड़ने वाला ही ठैरा, क्या उस घोसलें में पहचान बची होगी.? वो सुकूँ का दर मेरा रीता होने को बेताब दिखता है' क्या मेरा सुकून उन्हें दिख गया होगा.? कल ही तो बरसे थे जी भर बदरा, क्या सूखी जमीं में कोई अंकुरण हुआ होगा.? जमीं की बातें छोड़ तो दी थी मैंने, क्या एक बीज जो जम गया था वो पेड़ बन पाएगा.?

क़तरा.

कुछ दिनों से नहाया नहीं हूँ, विचारों का मैल जमता जा रहा है मुझ पर, बेपरवाह सा बनने को ख्वाहिश लिए गुजरता रहा बिना किसी काफ़िले के अच्छाई-बुराई को दरकिनार रखकर, कुछ तो खटका था स...