एक कमीज़ वाला

आज अपनी मुँहबोली बहन को उसके जन्मदिन पर हरे रंग का कुर्ता उपहार में देने के बाद वो बातें करते-करते पता नहीं कहाँ खो गया............!
        पूछा तो मालूम पड़ा एक अतीत है खंजर की तरह जो बार-बार,रह-रह के वार करता है ,..............................
हर बार ये खंजर कुछ ऐसे पलों को आंखों के सामने ले आता है जो दिल को लहुलुहान कर जाते हैं,,,ऐसे ना जाने कितने अनदेखे खंजर हैं उसके पहलू में जो किसी- न-किसी बात से उस दौर की याद दिला देते हैं जो दौर आँखों को कभी भाया ही नहीं,वो दौर जिसने चैन से कभी जीने ही नहीं दिया,,,
       आज भी इस हरे रंग के कुर्ते से उसको एक ज़माना याद आ गया,,,,
हाँ साहेब वही ज़माना जिसे हम बचपन कहते हैं,,,
अमूमन तौर पर कहते हैं कि ये वक़्त तो लड़कपन में बीत जाता है जहाँ ना दिन की चिंता ना रातों का ठिकाना,,,,
पर यहाँ ये सब बातें ग़लत साबित होती हैं,,,,,,,,, यहाँ दिन की चिंता भी थी और रातों का ठिकाना भी .........
                 बातों ही बातों में वो फ़िर उसी मोड़ पर पहुँच गया,जहाँ से गुज़रे उसे बरसों बीत गए थे.......
       उसने बताया वो हरा रंग,,,तोते के रंग जैसा हरा रंग मेरे पसंदीदा रंगों में से एक रंग,
मेरे ज़ेहन से जाता ही नहीं,,
"एक कमीज़ हुआ करती थी मेरे पास जब में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था उसका रंग भी हरा था तोते के रंग जैसा हरा,......................................
मैंने उसे पूरा साल पहना,गर्मी में भी और सर्दी में भी बहुत अज़ीज़ था मुझे वो रंग भी और वो कमीज़ भी, हो भी क्यों ना एक मात्र कमीज़ थी वो मेरे पास जिसे मैंने पूरा साल पहना,,,"
         और मज़े की बात तो ये हुई कि मुझे मालूम ही नहीं था कि मैं हमेशा एक ही कमीज़ पहनता हूँ,,
मुझे तब पड़ा मालूम भी जब मेरे स्कूल का एक लड़का जो मेरा जूनियर था उसने कहा कि मेरे पिताजी तो तुझे इसी नाम से बुलाते हैं.............."एक कमीज़ वाला",.................................................
           ये शब्द-"एक कमीज़ वाला" इतना बड़ा मुद्दा बन गया कि जिन महाशय ने ये कहा था उन्होंने सफाई भी पेश की,,,,,, कि मैंने तो ऐसा कुछ नहीं बोला पर मालूम तो सबको था कि सच में जब एक ही कमीज़ पहनी जा रही है तो नाम रखना भी लाज़मी सा है क्योंकि कुछ लोगों के पास काफ़ी वक़्त होता है इन सब चीजों के लिए,दूसरों पे छीटाकशी करने के लिए,किसी व्यक्ति को मुद्दा बनाने के लिए,,...वो दौर भुलाए नहीं भूलता.....आंखों के सामने जब वो मंजर नज़र आने लगते हैं ना ये आंखें ख़ुद-ब-ख़ुद दरिया बनने लगती हैं,,,
                आज का भी एक दौर है इतने कपड़े इतने संसाधन हैं कि इनको इस्तेमाल करने के लिए वक़्त नहीं है,,,,जब वक़्त था तो संसाधन नहीं थे,,,कितना अजीब होता है ना वक़्त का खेल भी,,,,........
पर आज भी मेरी आँखों से ना वो हरा रंग जाता है और ना ही वो आवाज़ .................हाँ वही आवाज़-"एक कमीज़ वाला".......................................!

         

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