"कीमत"

    मैंने दीदी से कह दिया कि जब ईश्वर मुझे बुलाने आये तो कह देना कि मैं घूमने निकल गया हूँ,,........
 
        दअरसल बात ये थी कि मेरी जो एक मात्र जीन्स थी ना वो धोकर छत पर सुखाने डाली थी,,,जब जीन्स धोयी थी तो फिर कैसे घूमने जाता,और कुछ था भी तो नहीं पहनने को..........

वो दौर बड़ा तंगी का था,,,,
    मेरे सारे ख़र्चे दीदी उठाया करती थी,,,
जब दीदी मेरे लिए इतना कुछ कर रही थी तो फ़िर कैसे एक और ख़्वाहिश उसके सामने रख देता मैं,,,,
   
   ये कॉलेज के दिनों की बात है .............
भाइयों ने घर,ज़मीन-जायदाद का बंटवारा कर ज़िम्मेदारियों के नाम पर हाथ खड़े कर दिए,,
पिताजी आर्थिक रूप से और उम्र अधिक होने के कारण शारीरिक रूप से सक्षम नहीं थे कि आगे की पढ़ाई करवा सकते,,,,,
     इसलिए दीदी अपने साथ अपने शहर ले आयी,,,
बीच-बीच में घर जाना होता था पर उस वक़्त जब गांव में सरकारी कोई काम आता था,
    मतलब की मजदूरी करने,,ताकि कुछ खर्च इससे चल जाये,,,
जब दीदी के साथ शहर में आना हुआ तो,
कॉलेज के बाद रोज़मर्रा के कामों से निपट कर दोस्तों के साथ शाम को घूमने निकल जाया करते थे,,,
    ताकि गमों का कुछ साजो सामान उन वीरान सड़कों में बिखेर आयें,,
वो शामें भी आज जैसी थोड़ी ही थी  ....,,,,,,,,,
वो शामें बड़ी अजीब थी,
कुहासा से लबालब भरा सीना हुआ करता था,,,,जहाँ से बस एक धुंध से घिरी रौशनी नज़र आती थी,,,
                ये वो दिन थे जब ज़रूरत ही पूरी कर पाना नामुमकिन सा लगता था,,,
शौक तो फिर मत ही पूछिये साहेब,
वो जवानी के दिन थे.......
कितने शौक होते,
कितने ऐब होते,
कितने मसले होते,
कितनी जगीदारियाँ होती,
      पर ऐसा कुछ भी नहीं था,,बस थी तो सीने में दबी एक कुंठा,,,जो रह-रह कर बोझ सी लगने लगती थी,,
वो बोझ जो ना सर से उतारा जा सकता था ना किसी और के सर मढ़ा जा सकता था,,
    जी आपने बहुत सही समझा हम ज़िन्दगी की ही बात कर रहे हैं ...
वो जो बोझ था ना वो इस हल्की-फुल्की सी दिखने वाली साँसों का ही बोझ था ,,,
               उन दिनों की शामों में कुछ अपना रंग बिखेरकर जब घर वापसी होती तो फिर वही तनातनी का मंज़र,,,,मेरे और साँसों के बीच,,,,,
      असल में जो मेरी जीन्स थी ,,वो मेरी थी नहीं असल में,,,,भाई साब को वो साइज बड़ा हो गया था तो वो उसे मुझे दे गए,,,
      वो बिना हालात जाने ,,,जीन्स नहीं एक कीमती तौहफा दे गए,,अनजाने में,,,,
उस जीन्स के आने के बाद हर रोज़ वही जीन्स पहनकर घर से बाहर जाना हो पाता था और घर आकर उसे यथास्थान टांक देना और फिर शाम को दोस्तों के साथ जब घूमने निकलते तो तब फिर से उसको पहनना ,,,
        "भाई साब ने ना जाने कितनी कीमत में खरीदी होगी वो जीन्स ,,पर मेरी नज़रों में वो अनमोल थी ,,"

आज नौकरी है,!!!!!!!
शौहरत है,
नाम है,
फ़िजूल खर्ची है,
जैसा चाहो वैसा पहनने को कपड़ा है,,,
और भाई साब भी साथ में हैं,,,,,,,,
वही भाई साब जिन्होंने मुझे जीन्स दी थी,,,अभी उनका कुछ बेरोजगारी का दौर है तो उस जीन्स की कीमत तो नहीं पर जीन्स की कीमत से ज़रा कम उनके लिए कुछ कर पाता हूँ,,
उनकी ज़िम्मेदारियाँ उठाता हूँ,,,,,
ये कोई घमंड में नहीं कह रहा मैं,, इसे गलत ना समझना,,,कोई गुरुर नहीं है कि मैं उनका खर्चा उठा रहा हूँ,,,,
उनके उस एहसान के सामने तो ये कुछ भी नहीं जो उन्होंने वो जीन्स देकर किया था,,
उन्हें तो मालूम भी नहीं कि तब दशा ऐसी थी कि उनकी जीन्स से मेरा वो पूरा साल कटा था,,,
      
       पर मेरे मन में हमेशा वो कर्ज़ है जो भाई साब ने चाहे बिना जाने दिया हो ,,,,
    अभी मैं उनके लिए जो भी कर पा रहा हूँ  वो उस "जीन्स की कीमत" से शायद बहुत कम है,,,,,,

........ना जाने कब मैं उस जीन्स की पूरी कीमत अदा कर पाऊँगा भाई साब को..........???

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