वो
मेरी नींद का ताना-बाना तोड़कर,
वो खिलखिलाते रहे, रोना छोड़कर..
मुरव्वत,बेकशी की इक धुन सी पकड़ी है उसने,
वो रतजगा कर रहे हैं, सोना छोड़कर..
मेरे सीप के अनगिनत मोती बिखरे थे उनकी राहों में,
वो समंदर में फेंक रहे थे,उन्हें पिरोना छोड़कर..
मेरे कदम लड़खड़ाते रहे ताउम्र मंज़िल की तलाश में,
कैसे आता कोई मुझे संभालने,ख़ुद का घरौंदा छोड़कर
मैख़ाने 'में' ढूंढ़ता रहा 'मैं' अपनी 'मै' की तलब को,
ना कोई रिन्द मिला ना कोई सैफ,इक मैकशी छोड़कर..
कफ़स उदास है मेरा,सबा से कहो कि जल्दी आए,
अब सब लम्हे ख़ुशगवार हैं, सब-ए-फ़ुरकत छोड़कर..
चराग़-ए-सहर जाने क्यों जला दिए हैं जफ़ाज़ू ने,
सब जगमगा रहा है यहाँ ,अंधेरों को छोड़कर..
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