"ज़ख्मों का बेताज़ बादशाह"

एक और ज़ख्म ताजा किया आज मैंने उसका......
        कभी-कभी तो लगता है कि उसके अतीत का शीशा दिखाने ही मैंने उसकी जिंदगी में प्रवेश लिया है,,मेरी ज़िंदगी में होने वाली हर उठा-पटक से उसको अपना कोई बीता हुआ लम्हा ज़रूर याद आ जाता है,,
             समझ नहीं आता है कि उसने छोड़ा क्या है ज़िन्दगी में,,सारे मंज़र तो वो अपनी आंखों में लिए फिरता है,,,तभी तो अमीर है वो "ज़ख्मों का बेताज़ बादशाह"..............
   शाम के वक़्त जब बात हुई तो मैंने उसे बताया कि आँख में चोट लगी है मेरे रिश्तेदार की वो भर्ती है अस्पताल में इसलिए ज़रा परेशान हूँ............
          मेरे बोले हुए लफ़्ज़ों का असर कुछ यूं हुआ कि बीते दिनों की गर्दिश उसे फिर उस घरौंदे में ला पटकी जहाँ से निकले हुए उसे काफी अरसा हो गया था,,
               
                    ईजा की आँख में लग गयी थी, छोटी दीदी की शादी के दिन,,ईजा लकड़ी काट रही थी और लकड़ी का एक टुकड़ा जाकर उनकी आँख में लग गया,,और पूरी आँख लहुलुहान हो गयी,,सुबह ये घटना हुई और रात को दीदी की शादी ,,,,
इसी हालत में शादी निपट गयी,,पर ईजा की आँख सही नहीं हुई,,
   फिर उसे ऑपरेशन के लिए पिथौरागढ़ ले गए ,,,,उस ज़माने में पिथौरागढ़ इलाज़ कराने जाने का अर्थ होता था कि शायद ही गया हुआ इंसान वापस आ पायेगा,,
क्योंकि तभी किसी मरीज़ को वहाँ ले जाया जाता था जब इलाज़ गाँव में सम्भव ही ना हो और वो इस हाल में हो कि बचना नामुमकिन हो,,,.........................

कृष्णा कहते-कहते ऐसे रुक गया जैसे वो बातों ही बातों में सचमुच उसी दौर में पहुँच गया हो,,........
दीदी की नयी-नयी शादी हुई थी पर वो शादी के बाद मायके आ गयी थी कुछ वक्त के लिए क्योंकि ईजा के बाद घर संभालने वाला कोई नहीं था,,तब मैं शायद तीसरी में पढ़ता हूँगा,,,
वही वक़्त था जब मैंने रोटी बनाना सीखा था,,
पहली बार रसोई में जाकर मडुवे की रोटी बनाई थी...................तब तो गेहूँ का आटा भी नसीब नहीं था,,,,,,,,....अमीरी यही थी कि दो वक्त की रोटी भरपेट मिल जाये,फिर क्या फर्क पड़ता है रोटी गेहूँ की हो या मडुवे की,,,
         ईजा की एक आँख में पहले से ही मोतियाबिंद था और दूसरी आँख का ज़ख्म तो ख़ुद के ही हाथों मिल गया,,,,,चोट वाली आँख ठीक होने की कोई संभावना नहीं थी इसलिए मोतियाबिंद वाली आँख का ऑपरेशन करवाया और ईजा को चश्मा लग गया,,,
           इस ऑपरेशन के लिए ईजा के कान के झुमके बेचने पड़े थे,,,घर की स्थिति इतनी ख़राब थी कि चार पैसे का इंतज़ाम भी लाजिम नहीं था,
फिर वही .....................औरत का श्रृंगार बेच देना तो घर-घर की कहानी है,,,,उसे औरत की शान तो बस मन रखने के लिए कहा जाता है,,असल में तो वो ऐसी चीज़ होती है जिसे बुरे वक्त में इस्तेमाल किया जा सकता है,,

हाय रे गरीबी तेरा रुतबा भी बड़ा गजब है,,,,,जिसके नसीब में तू आ जाये मजाल है फिर कभी चार जून की रोटी जुटाने की ताक़त भी रहे उसके कंधों पर,,...........................................................

   

 

Comments

Popular posts from this blog

सपनों की कब्रगाह-: नौकरी

अकेली औरत

पहाड़ का रोना