मुजरिम व समाज
रूखी-सुखी खाता था
पेट पकड़ के रोता था।
फुटपाथ से उठाता था
भूख लगे तो रोता था।
तन ढकने को कपड़ा था
पेट भरना लक्ष्य था।
भीख माँगना कर्म था
घिसा हुआ चर्म था।
गाली खाना मान था
कल्पना करना ज्ञान था।
पेट भरना अभिमान था
उन्ही का तो सम्मान था।
दुनिया की परवाह न थी
कहीं कोई दरगाह न थी।
किसी को उसकी फिक्र न थी।
चौदह साल की उम्र जो थी।
गालियों में बिता बचपन था
हमारे समाज़ का दरपन था।
दुनिया ने उसे बनाया पत्थर था
फिर भी जीवन राह में तत्पर था।
बिना मन्ज़िल की नाव का था साहिल
बन चुका पन्द्रह साल में कातिल।
फिर उसे एक गली मिली
आशा की एक कली खिली।
इस तरह बुराई को जगना था
फिर एक मुजरिम को उगना था।
.......जनवरी 2010
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