यूँही बैठा रहा

न जाने कितने दिन कितने साल
मैं यूँही बैठा रहा

उड़ने की चाहत लिए मन में
मैं लेटा रहा

समय का पहिया घूमता रहा
और मैं सोता रहा

सीढ़ी लगानी थी आसमां तक
मैं गड्डा ही खोदता रहा

पकवानों की आस लिए मन में
सुखी रोटी ही खाता रहा

ना जाने कितने दिन कितने साल
मैं यूँही बैठा रहा

फसल काटने का समय भी आता रहा
पर मैं सपने बोने मैं ही रहा

यूँ तो द्वार में आहट हुई कई बार
किन्तु मैं व्यस्तता में ही व्यस्त रहा
व्यस्तता में व्यस्त रहा.......
न जाने कितने दिन कितने साल................।

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