डर हैं।

अनदेखे-अनजाने पल का डर हैं
ज़िन्दगी और हैं कि क्षण भर हैं
यूँ ही मर भी जाऊँ तो कैसे
चुकाना अभी कितना कर हैं?
ए खुदा..!
जमीं पे लाया तू पर कुछ तो बता
कहाँ मेरी मन्ज़िल कितना मेरा सफर हैं
कि गम नहीं मर जाऊँ गर मैं
मन्ज़िल को तो पाऊँ पर मैं
बिना मन्ज़िल जाऊँ भी तो किस घर मैं ?
साँझ ना कर ए खुदा
अभी तो देखी मैंने सहर हैं
अनजाने अनदेखे पल का डर हैं।

Comments

Popular posts from this blog

सपनों की कब्रगाह-: नौकरी

अकेली औरत

पहाड़ का रोना